ग़ज़ल
तुम चाँद हो फलक पर, या तारों की बहार कह दुँ ,
तुम्हे फूलों की कहूँ रानी ,या गुलबहार कह दूँ ,
देखकर के तुमको शर्मा जाये ,ये गुलशन
तुम मलका ऐ गुल बोलूं या नौबहार कह दूँ ,
तुम चाँद पर भी होती तो फ़ौरन मैं चला आता,
तुमसे मिलने को है कितना, दिल, बेक़रार कह दूँ ,
मिलती नहीं है फुर्सत मुझे तुमको सोचने से
इसे आदत बताऊ अपनी ,या कारोबार कह दूँ,
आते हैं ख्वाब तेरे ,अब तो नींद की जगह
कितना हैं मुझको "सैफी" तुमसे प्यार कह दूँ।
शफ़ीक़ सैफी
मौलिक एबं अप्रकाशित
Comment
आ. शफीक़ भाई , बिना काफिये की ग़ज़ल नही हो सकती , हाँ ... बिना रदीफ के ग़ज़ल ज़रूर कही जा सकती है .. इस लिहाज़ से आपकी रचना गज़ल की श्रेणी मे नही आ रही है .. प्रयास के लिये बधाइयाँ स्वीकार करें ।
आदरणीय शफीक सैफी साहब आपने गजल विधा के साथ यह रचना पेश की है मंच के अनुशासन के अनुसार गजल का अरकान या बह्र लिखने की परंपरा है आपने नहीं लिखा जिससे इसका अनुमान नहीं हो पा रहा है कि आपने किस बहर में यह गजल कही है साथ ही काफिया का निर्वाह भी नहीं हो पाया है इसमें । यदि आप चाहें तो गजल के बारे में विस्तृत जानकारी मंच पर है आप उनके आलेख का लाभ ले सकते है । सादर
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