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नज़र की हदों से .....

नज़र की हदों से .....

अग़र
तेरे बिम्ब ने
मेरे स्मृति पृष्ठ पर
दस्तक
न दी होती
मैं कब का
तेरी नज़र की
हदों से
दूर हो गया होता

शायद
रह गया था
कोई क्षण
अधूरी तृषा लिए
तृप्ति के
द्वार पर
अगर
तेरी तृषा के
स्पंदन ने
मेरी श्वासों को
न छुआ होता
सच
मैं कब का
तेरी नज़र की
हदों से
दूर हो गया होता

शायद
लिपटा था
कोई मूक निवेदन
अपनी हथेली पर
एकांत में बीते
मधुर संवेदनाओं की
बिखरी किर्चियाँ लेकर
मेरे क़दमों से
एक याचक सा

सच मानो
अगर मेरे पथ को
अपनी विरह गंध से
पोषित न किया होता
मैं कब का
तेरी नज़र की
हदों से
दूर हो गया होता

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on August 17, 2017 at 5:34pm

आदरणीय  laxman dhami जी सृजन के भावों को आत्मीय प्रशंसा से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 17, 2017 at 11:18am
बहुत अच्छे भाव ...हार्दिक बधाई।

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