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कुछ जाना कुछ अनजाना-सा लगता है
कुछ भूला कुछ पहचाना-सा लगता है

दर्पण में प्रतिबिम्बित अपना ही मुखड़ा
कुछ अपना कुछ बेगाना -सा लगता है

मुझ-सम लाखो लोग यहां पर बसते है
हर कोई बस दीवाना-सा लगता है

जीवन तो बस वाल्मीकि की वाणी मे
आंसू की गाथा गाना-सा लगता है !

.
मौलिक व अप्रकाशित  ---नन्दकिशोर दुबे

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Comment by Samar kabeer on September 25, 2017 at 10:46am
जनाब नन्दकिशोर दुबे जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
इस मंच पर ग़ज़ल के साथ अरकान लिखने का नियम है,जो आपने नहीं लिखे ।
Comment by Rohit Dubey "योद्धा " on September 23, 2017 at 3:39pm

बहुत सुन्दर सरस और सारगर्भित रचना ..हार्दिक बधाई

कृपया ध्यान दे...

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