तुम चली आना ...
जब
दिन भर का
शेष
थोड़ा सा
उजाला हो
थोड़ी सी
सांझ हो
मेरे प्रतीक्षा द्वार पर
निस्संकोच
तुम चली आना
जब
थके हारे विहग
अंधकार में
विलीन होती
सांझ के डर से
अपने अपने
तृण निर्मित घोंसलों में
अपनी
चहचहाट के साथ
लौट आएं
तब
मेरी आशाओं के घरौंदों में
अपनी प्रीत का
दीप जलाने
निस्संकोच
तुम चली आना
जब
मेरी पलकें
प्रतीक्षा के बोझ से
बोझिल हो
मुंदने लगें
तुम
काल पराजित करती
अपनी स्वप्न गलबाहियों से
मेरी स्वप्न सुधा मिटाना
मेरी पलक देश में
विचरण करने
निस्संकोच
तुम चली आना
मैं देर तक
रजनी को
उजालों में जाने न दूंगा
काल को
श्वासों की देहरी
लांघने न दूंगा
बस
मेरा
इतना सा अनुरोध
मान लेना
मेरे आभास को
अपने विश्वास के
आलिंगन से
अमर प्राण देने
निस्संकोच
तु........म
च....ली
आ..ना
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय महेंद्र जी सृजन की मुक्त कंठ से प्रशंसा का हार्दिक आभार। इंगित त्रुटि से मैं पूर्णतः सहमत हूँ इसको अभी दुरुस्त कर पुनः प्रेषित करता हूँ। इस हेतु आपका तहे दिल से शुक्रिया।
आ. सुशील सरना जी, बढ़िया भावाभिव्यक्ति हुई है. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए.
"तुम भी मेरी
आशाओं के घरौंदों में
अपनी प्रीत का
दीप जलाने
निस्संकोच
तुम चली आना"
यहाँ "तुम" की आवृत्ति दो बार हो रही है. देख लीजिएगा. सादर.
आदरणीय उस्मानी साहिब , आदाब .. सृजन के भावों की गहनता को आत्मीय मान देने का तहे दिल से शुक्रिया। सर इसे अतुकांत कविता ही कहेंगे। इस शैली में बस किसी भाव के मूल बिंदु को विस्तार देते हुए अपने शब्दों में एक प्रवाह के साथ चरम तक ले जाना होता है। बस और कुछ विशेष नहीं। आपकी इस श्रद्धा का हार्दिक आभार।
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