२२, २२, २२, २२
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सीने से चिमटा कर रोये,
ख़ुद को गले लगा कर रोये.
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आईना जिस को दिखलाया,
उस को रोता पा कर रोये.
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इक बस्ते की चोर जेब में,
ख़त तेरा दफ़ना कर रोये.
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इक मुद्दत से ज़ह’न है ख़ाली,
हर मुश्किल सुलझा कर रोये.
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तेरी दुनिया, अजब खिलौना,
खो कर रोये, पा कर रोये.
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सीखे कब आदाब-ए-इबादत,
बस,,,, दामन फैला कर रोये.
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हम असीर हैं अपनी अना के,
लेकिन मौका पा कर रोये.
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सूरज जैसा “नूर” है लेकिन,
जुगनू एक उड़ा कर रोये.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
आ. रामबली गुप्ता जी ,
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बहरे-मीर में मीर की ग़ज़ल
पत्ता पत्ता बूटा बूटा का शेर देखें
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आगे उस मुतकब्बिर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं (१२१२)
कब मौजूद ख़ुदा को वो मग़रूर-ए-ख़ुद-आरा जाने है.
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एक मतला और देखें मीर का
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इश्क़ हमारे ख़याल पड़ा है ख़्वाब गई आराम गया
जी का जाना ठहर रहा है सुब्ह गया या शाम गया (१२१२)
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शायद मैं आपको यकीन दिला पाया हूँ कि मेरे मिसरे भी इसी बहर में हैं और ख़ारिज नहीं हैं ...
वैसे ये लघु -गुरु भी ग़ज़ल कहने वालों का काम नहीं है ....
ग़ज़ल वाले जब ग़ज़ल कह लेते हैं तो उस की गैय्यता समझने समझाने के लिए ये सब प्रपंच रचा जाता है... लय शास्वत है ..
सादर
आ. रामबली गुप्ता जी,
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मैं कुछ बातें आप को स्पष्ट कर दूँ...
१) मेरी कोई तमन्ना नहीं है कि मैं नामचीन रचनाकारों में शुमार होऊं.
२) मुझे उस्ताद बनने और कहलाने का कतई शौक नहीं है ..मैं अपनी अंतिम सांस तक अच्छा तालिब-ए-इल्म बन पाया तो वही बहुत होगा.
३)मैं अपनी ख़ुशी के लिए लिखता हूँ न कि अपना प्रोडक्ट बेचने के लिए और यही कारण है कि लगभग तीन पुस्तकों में समाने लायक ग़ज़लें होते हुए भी मैंने छपने की कभी चेष्टा नहीं की. स्वयं समर सर मुझे कई बार मजमुए के लिए बोल चुके हैं.
४) छपास की भूख न होने के चलते मैं बहुत कम रचनाएँ पोस्ट करता हूँ....पत्र-पत्रिकाओं में तो कतई नहीं भेजता.
५) ग़ज़ल कह पाने और विधान समझने से पहले मैंने क़रीब 250 रचनाएँ (लगभग २ पुस्तकें) और भी लिखीं थी जैसी आजकल अतुकांत, अछंद, छंदमुक्त के नाम से धड़ल्ले से चल रही हैं लेकिन मैंने ग़ज़ल का विधान समझ कर उन्हें कूड़ेदान के हवाले कर दिया.
खैर.... ये सब बातें अपनी जगह ... अब मात्रिक बहर पर लौटते हैं....
आप अगर ओबैदुल्ला अलीम और निदा फ़ाज़ली को प्रमाणिक नहीं मानते तो ये आपकी समस्या है ...आप मीर की जगह दाग़ का हवाला माँगते तो मेरे लिए थोड़ा रिसर्च का विषय होता क्यूँ कि आधुनिक ग़ज़ल के ऐब दाग़ साहब ने निर्धारित किये हैं.. मीर की कई ग़ज़लों में तकाबुले रदीफ़ या शातुर्गुरबा जैसे ऐब आम हैं क्यूँ की उस दौर में भाषा ऐसी ही रही होगी या चलन वैसा होगा.
आपने मीर साहब की ग़ज़ल "पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है" पढ़ी ही होगी. न पढ़ी हो तो पढ़ लीजिये... अच्छी ग़ज़ल है.
बातें हमारी याद रहें फिर बातें ऐसी न सुनिएगा ..
चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है...
इश्क़ हमारे ख़याल पड़ा है ख़्वाब गई आराम गया....
मौसम-ए-गुल आया है यारो कुछ मेरी तदबीर करो .... और भी कई हैं
(वैसे मैं एक बात लिखना भूल गया कि इस मात्रिक बहर को बहर-ए-मीर भी कहते हैं ...
इसी मंच पर आ. वीनस केसरी जी का प्रमाणिक लेख उपलब्ध है ..लिंक में बिंदु (द) देखिएगा
http://www.openbooksonline.com/group/gazal_ki_bateyn/forum/topics/5...
आपको हिंदी से भी एक उदाहरण देता चलूँ....
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार
आयकर की छूट को समझकर उसका लाभ लेना यानी टैक्स चोरी नहीं होती ...
आशा है आप समझेंगे और लाभान्वित होंगे.
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