२१२२ ११२२ ११२२ २२(१)/ ११२(१) ११२२
रिश्तों’ का रंग बदलता ही’ गया तेरे बाद
रौशनी हीन अलग चाँद दिखा तेरे बाद |
जीस्त में कुछ नया’ बदलाव हुआ तेरे बाद
मैं नहीं जानता’ क्यों दुनिया’ खफा तेरे बाद |
हरिक त्यौहार में’ आनन्द मिला तेरे साथ
जिंदगी से हुए’ सब मोह जुदा तेरे बाद |
रात छोटी हो’ गयी और बहुत लम्बा दिन
अब तो’ जीना हो’ गई एक सज़ा तेरे बाद |
साथ आई थीं’ वो’ आपत्तियाँ’, तुझको ले’ गयी
नहीं’ अब तक टली’ वो बलवा’ बला तेरे बाद |
इश्क में मस्त थे’ हम जिंदगी’ में साथ सदा
अब मुहब्बत से’ भी’ दिलगीर हुआ तेरे बाद |
बेखुदी में था’सदा तेरे’ मुहब्बत-मय में
साकिया से भी’ मे’रे ध्यान हटा तेरे बाद |
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
इस कोशिश के लिए धन्यवाद आदरणीय कालीपद जी.
नया जैसे शब्द का या को गिराना उचित नहीं है. और बहर को साधने में गेयता भी बनी रहे इसका ध्यान रखें तो शेर और प्रभावी दिखेंगे.
शुभ-शुभ
आ समर कबीर साहिब , आदाब ,आपके निर्देश अनुसार लास्ट रचना में सुधार कर दिया है | गालिब के गजलों में मैंने पाया कि उन्होंने शिकस्ता नारवा दोष को कोई महत्व नही दिया है | दरअसल इसे दोष मानने से अभिव्यक्ति और भाव सम्प्रेषण में बाधा उत्पन होती है | शायद इसी वजह उन्होंने इसका नज़रंदाज़ लिया होगा या उस वक्त इसको दोष माना नहीं जाता होगा जैसे दाग के पहले शुतुर्गुरबा दोष को नहीं मानते थे | सादर
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