विकल विदा के क्षण
सिहरता सूनापन
संग्रहीत हैं अनायास उमड़ते अनुभव
पता नहीं अब जीवन के इस छोर पर
प्रलय-पवाह जो भीतर में है
वह बाहर व्याप्त हो रहा है, या
स्तब्धता जो बाहर है, घुटती-बढ़ती
आकर समा गई है हृदय में आज
मेरी कमज़ोरियों का रूपांकन करती
शोचनीय स्थिति मेंं मूलभूत समस्याएँ
अवसर-अनवसर झुठलाती हैं मुझको
उभरते हैं पुराने जमे दुखों के बुलबुले
दुख में छटपटाती सलवटों की
सीमा रेखाएँ होती हैं क्या ?
किसी उलझे गणित की जटिल
आत्म-चेतस मनोभूमि में
यह विडम्बना ही तो है जो हम जीते हैं
अन्तर्ध्वनित सत्यों को प्रमाणित करते
अकसर हम कई वतसर नहीं बीता देते क्या
विशमय अभिशाप-सा यह प्रश्न है गंभीर
इस पर भी आधी-आधी रात में
अर्ध-अचेतन स्थिति में
अंधेरे के फैलाव में
तनाव में, घिराव में
प्रतीक्षातुर, गिनते ही रहते हैं हम
अशान्त साँसों की खतरनाक धड़कन
हार कर भी हार नहीं मानती है
खंडित चेतना प्रलय के द्वार पर
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित
Comment
इस पर भी आधी-आधी रात में
अर्ध-अचेतन स्थिति में
अंधेरे के फैलाव में
तनाव में, घिराव में
प्रतीक्षातुर, गिनते रहते हैं हम
अशान्त साँसों की खतरनाक धड़कन
हार कर भी हार नहीं मानती है
खंडित चेतना प्रलय के द्वार पर भी
वाह आदरणीय विजय निकोर जी वाह .. अंतर्मन की नाद को शब्दों में रेखांकित करना आसान नहीं है ... शब्दों का सुंदर चयन, भावों का निर्बाध प्रवाह , अनुपम सृजन। ... इस अप्रतिम प्रस्तुति के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें सर।
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