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गऊ ठीक-ठाक नहीं (लघुकथा)

उसे फिर किसी की चीख़ सी सुनाई दी।  उसने सोचा कि पड़ोसी का बच्चा फिर पिट गया होगा स्कूल का होमवर्क समय पर पूरा न कर पाने की वज़ह से या किसी ज़िद की वज़ह से। तभी एक और चीख़ उसे सुनाई दी। उसने अबकी सोचा कि फिर कोई बदज़ुबान बीवी या सास पिट गई होगी या कोई शराबी पति अपनी तेज-तर्रार बीवी से!  अगली चीख से स्पष्ट हो गया था कि चीख़ किसी महिला की ही थी। 

"भाड़ में जाए! करना क्या है? कर भी क्या सकते हैं ? उसकी बस्ती में तो आये दिन ऐसा कुछ न कुछ होता रहता है! रात के बारह बज चुके हैं, अपना भी सोने का वक़्त है!" उसने सोचा और खिड़की बंद कर बेड रूम में पहुंच गया। उसकी पत्नी की नींद अब लग चुकी थी। हां, उसका तकिया ज़रूर अश्रु-गंगा की गवाही दे रहा था।

"अपनी ग़लती कबूल कर लेती है! मुझसे कभी मुंह नहीं लड़ाती है! गऊ है गऊ! आज फिर सो गई डांट खाकर!" पत्नी की तरफ़ पीठ कर वह लेट गया था। पड़ोस से चीखें कुछ देर और सुनाई दीं।‌ फिर शान्ति छा गई थी।

पिछली देर रात की बात याद करते हुए वह चीखने वाली उस पड़ोसी औरत की लाश के सामने खड़ा था। 

"पति पर हाथ उठा दिया ससुरी ने, सिर्फ़ इतना कसूर था!" पड़ोसी उसे सुना रहा था, "गऊ जैसे आदमी से बेइज़्ज़ती इस बार बर्दाश्त न हुई; छोड़-छुट्टी न हुई, पक्की छुट्टी हो गई!"

"रात को चीखें तो सुनी थीं! किंतु कुछ ऐसा हो जायेगा, सोचा न था!" उसने उस पड़ोसी से कहा।

"तेज़ चीख़ें तो हमने भी सुनीं थीं! लेकिन सोचा कि मियां-बीवी के पचड़े में कौन पड़े!" पड़ोसी उसे एक तरफ़ कोने में ले जाकर बोला- "वैसे, औरतें तो रोकर-चीखकर शांत हो जाती हैं और अगले दिन सब कुछ ठीक-ठाक!"

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Mohammed Arif on December 17, 2017 at 7:35am

आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी आदाब,

                                स्त्री-पुरुष समानता के छद्म युग में हमेशा हार स्त्री की और जीत पुरुषों की होती है । हम लाख नारी समनता का स्वांग रचते हैं । हर हाल में पुरुष अहंकार ही विजय होती है । कितनी अजब बात है कि जो स्त्री नौ माह अपने पेट में पालती है उसी कोख की संतान उसे मारने पर आमादा हो जाती है ।

                                     बहुत ही सशक्त और प्रभावोत्पादक लघुकथा के लिए दिली मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए ।

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