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वज़्म ये सजी कैसी कैसा ये उजाला है - सलीम रज़ा

212 1222 212 1222
बज़्म ये सजी कैसी कैसा ये उजाला है
महकी सी फ़ज़ाएँ हैं कौन आने वाला है
-
चाँद जैसे चेहरे पे तिल जो काला काला है
मेरे घर के आँगन में सुरमई उजाला है
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इतनी सी गुज़ारिश है नींद अब तू जल्दी आ 
आज मेरे सपने में यार आने वाला है
-
जागना वो रातों को भूक प्यास दुख सहना
माँ ने अपने बच्चों को मुश्किलों से पाला है
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उसके दस्त-ए-क़ुदरत में ही निज़ाम-ए-दुनिया है
इस जहान-ए-फ़ानी को जो बनाने वाला है
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मुफ़लिसी से रिश्ता है ग़म से दोस्ती अपनी
मुश्किलों को भी हमने दिल मे अपने पाला है
-
उसकी शोख़ नज़रों का ये कमाल है देखो  
ज़िंदगी में अब मेरी हर तरफ उजाला है
-
भूल वो गया मुझको ग़म नहीं रज़ा लेकिन
उसकी याद को दिल में अब तलक सँभाला है
-
मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by SALIM RAZA REWA on January 6, 2018 at 11:53am
आली जनाब समर साहब,
अपने कहा नीद का वजूद नहीं फिर गुज़ारिश कैसी...
जनाब.. मौत का भी कोई वज़ूद नहीं होता पर लोग मौत की गुज़ारिश करते हैं.....
जनाब शेर में हमने जिद्दत डालने की कोशिश की है शेर पे कुछ टंकण गलती हुई है आपने उनको अवगत कराया है आपका शुक्रिया.. यार का दीदार.. Y अक़ीदा है.. उम्मीद में तो तमाम दुनिया कायम है...
Comment by Samar kabeer on January 6, 2018 at 11:30am

'इतनी सी गुज़ारिश है, नीद अब तो जल्दी आ

ख़्वाब में मेरे मेरा यार आने वाला है'

इस शैर में 'नीद' की जगह "नींद" होना था,दूसरी बात ये कि 'तो' की जगह "तू",और तीसरी बात ये कि नींद से जल्दी आने की गुज़ारिश अजीब लगती है,गुज़ारिश उससे की जाती है जिसका कोई वजूद हो,मन्तिक़ के हिसाब से ये सही नहीं है, और इस शैर के सानी मिसरे में "मेरे मेरा' भी खटकता है, और फिर ये बात कि किसी के ख़्वाब में आने के बारे में पहले से पता होना भी तार्किकता(मन्तिक़)के लिहाज़ से अजीब है,आपने पूछा तो बता दिया ।

Comment by SALIM RAZA REWA on January 6, 2018 at 8:59am
जनाब समर साहब, तीसरे शेर में. बात पूरी हो रही है.. पर अगर आप कुछ सुझाव दे.. 6 शेर का उला से ज़िंदगी नहीं हटाना चाहते सानी में कुछ करते हैं....
Comment by SALIM RAZA REWA on January 6, 2018 at 8:52am
आली जनाब समर साहब,
आपकी ग़ज़ल पर शिर्कत और आपकी महब्बत के लिए बेहद ममनून हूँ, मशविरे के लिए शुक्रिया
Comment by Samar kabeer on January 5, 2018 at 11:19pm

जनाब सलीम रज़ा साहिब आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

तीसरा शैर और समय चाहता है ।

'उसके दस्ते क़ुदरत में ही निज़में दुनिया है'

इस मिसरे को इस तरह लिखें :-

'उसके दस्त-ए-क़ुदरत में ही निज़ाम-ए- दुनिया है'

'उसकी शौख़ नज़रों ने ज़िन्दगी बदल डाली

ज़िन्दगी में अब मेरी हर तरफ़ उजाला है'

इस शैर के दोनों मिसरों में 'ज़िन्दगी'शब्द खटक रहा है,ऊला मिसरा यूँ कर सकते हैं :-

'उसकी शौख़ नज़रों का ये कमाल है देखो'

Comment by SALIM RAZA REWA on January 5, 2018 at 9:39pm
आदरणीय सौरभ जी,
आपकी ग़ज़ल पर शिर्कत और आपकी महब्बत के लिए शुक्रिया... नीद अब तो जल्दी आ कर दिया गया है ज़रा गे‍याता के वज़ह से लिया था तक़तिय के हिसाब से बदल दिया हूँ.... क़फ़िया में.. उजाला और पाला की पुनरावृत्ति हुई है लेकिन.. मिसरे की डिमांड के मुताबिक़ रखना पड़ा... 2 अलग शेर हमने इस शेर के लिए हटाए थे.. आपका पुनः धन्यवाद..
Comment by SALIM RAZA REWA on January 5, 2018 at 9:33pm
जनाब अफरोज साहब,
ग़ज़ल पर आपकी शिरक़त और हौसला अफज़ाई के लिए दिली शुक्रिया.
Comment by SALIM RAZA REWA on January 5, 2018 at 9:33pm
जनाब आरिफ साहब,
आपकी महब्बत के लिए शुक्रिया.

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 5, 2018 at 12:13pm

एक अरसे बाद आपकी प्रस्तुति पर आ पा रहा हूँ आदरणीय सलीम रज़ा साहब. आपकी कोशिश अच्छी लगी है. वैसे क़ाफ़ियाबन्दी में आपका हाथ इतना तंग नहीं होना था. 

दूसरे, इतनी सी गुज़ारिश है नीद ज़रा जल्दी आ.. की तक्तीह आवश्यक प्रतीत हो रही है. 

इस ग़ज़ल के लिए शुभकामनाएँ .. 

Comment by Afroz 'sahr' on January 5, 2018 at 12:04pm
जनाब सलीम रज़ा साहिब इस रचना पर बधाई स्वीकार करें।
"3 रे शे'र का ऊला मिसरा लय में नहीं है।4 थे शे'र में लफ़्ज़
"जगना" अशुध्द है। सही लफ़्ज़ "जागना" है।
5 वे शे'र मे "जहाँन ए" को "जहान ए" करलें। मक्ते में " तलक़" को तलक करलें।

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