बह्र- 122-122-122-122
मुझे है भला क्या कमी जिंदगी से।।
है रिश्ता मेरा तीरगी ,रौशनी से।।
मुझे बज्म इतना न पहचां रही है।
है पहचान मेरी-तेरी माशुकी से।।
कई बार गुजरे हैं तेरे शह्र से।
तेरी आशिक़ी से तेरी बेरुख़ी से।।
मुहब्बत के कुछ ऐसे क़िस्से सुने हैं।
की डर लगता है आज की आशिक़ी से।।
दिये की जरुरत किसे अब नही है?
बता किसकी कब है बनी तीरगी से??
पता मुझको उस शख्स का भी जरा दे।
अदावत रही ता-उमर हो ख़ुशी से।।
उन्हें कैसे अब हम बतायें जतायें।
की रिश्ता अलग अपना है दिल्लगी से।।
हैं हिस्से में मेरे बहुत कम वो रातें।
वो रातें हुई जो, हैं तनहा ख़ुशी से।।
मैं आँखों में उनकी उतर कर ये समझा।
के रिश्ता है इनका भी गम से ख़ुशी से।।
युं सहरा ही रहने दो आँखों को अपनी।
सुना दर्द देती हैं आँखें नमी से।।
लिखे हर्फ़ कागज़ के बोलें दफ़ा कई।
बड़ा फर्क है आदमी-आदमी से।।
आमोद बिंदौरी / मौलिक अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आ तस्दीक अहमद खान साहब जी
जनाब आमोद बिंदोरी साहिब , ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाए। मतले का उला मिसरा यूँ करलें --मुझे कोई शिकवा नहीं ज़िन्दगी से
शेर2 , माशुकी कोई शब्द नहीं ,सही शब्द है माशूकी, उसे यूँ करसकते हैं ।
नहीं है शनासाई महफ़िल में अपनी --है पहचान मेरी तेरी दिलबरी से ।
शेर3 में ऐब तकाबुले रदीफैंन , यूँ करलें --हुआ सामना है कई बार मेरा ।
शेर4 सानी यूँ करलें --कि लगता है डर आजकी आशिक़ी से ।
शेर5 ऐब तकाबुले रदीफैंन , यूँ करलें --उजाला तो है हर किसी ज़रूरत -जहां में है निस्बत किसे तीरगी से ।
शेर6 ऐब तकाबुले रदीफैंन , यूँ करसकते हैं । मुझे नाम इक शख़्स का ही बता दो --गमों का जो करता हो सौदा खुशी से ।शेर7 यूँ करसकते हैं।
किसे जा के बतलायें हम अपनी उलझन -कोई बाज़ आता नहीं दिल्लगी से ।
शेर8 में कोई रब्त नहीं है ।शेर9 यूँ करलें ,।उतर कर निगाहों में उनकी ये जाना--है रिश्ता भी उनका अलम से खुशी से ।
आखरी शेर उला बह्र में नहीं , यूँ करलें । सभी को बराबर न आमोद समझो --बड़ा फ़र्क़ है आदमी आदमी से ।
वाह वाह आदरणीय खूबसूरत ग़ज़ल हुई.
आदरणीय अमोद जी आदाब,
ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है । गुणीजन अपनी राय देंगे । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
कई बार हँसकर के गुजरे हैं हमभी। तेरी आशिक़ी से तेरी बेरुख़ी से।।--आमोद बिंदौरी
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