गौरी, पिता के स्नेहिल परिधि में एक साथी की परिभाषा का 'प' समझ पाई। उसी पिता के आँगन में एक लंबा सा साथ निभाने के लिए उसके बचपन को बांटने के लिए भाई के रिस्ते ने साथ दिया। तब वह साथी की परिभाषा के दूसरे पायदान पर 'रि' रूपी रिस्ते को समझने की कोशिश भर कर रही थी। पिता का वह आँगन गौरी की परवरिश के साथ-साथ, बेटी के पराये होने का एहसास भी कराता रहता था। उसकी शिक्षा-दीक्षा की इतिश्री मानकर पिता ने जीवन के लिए, फिर से एक साथी की तलाश शुरू कर दी। जो बेटी भाग्य विधाता होगा। पिता से भी ज्यादा अच्छे से साथ देगा। 'जबकि न कभी, जीवन की शिक्षा पूर्ण होती है। न कोई किसी के जीवन का भाग्य विधाता हो सकता है। पर पिता ने परिणय वेदी पर एक जीवन साथी के साथ गौरी का भाग्य जोड़ दिया। उसके जीवन में पिता के साथ का हस्तांतरण पति के साथ के रूप में हो गया। उस दिन साथी की परिभाषा के तीसरे पड़ाव "भा" अर्थात "भाग्य को जाना। नारी की जीवन धारा , नदी के प्रवाह सम एक घाट से दूसरे घाट तक की निरन्तरता के साथ प्रवाहमान थी। लगा, जीवन के नये परिवेश में एक साथी ने साथ जीने मारने की कसमें खाई है, तो आजीवन साथ निभायेगा। लेकिन जीवन पथ पर उसने भी गौरी की झोली में मातृत्व भरे वात्सल्य की प्रतिकृति रूपी साथी को डाल दिया। जीवन की तमाम खुशियों का साथी, जिसे पाकर सबका साथ भूल गईं। बेटे का साथ, एक नारी के जीवन की पूर्णता का परिचायक शास्वत प्रमाण भी होता है। उस दिन वह साथी की परिभाषा के पूर्ण अर्थ को 'षा' को आत्मसात किया था। बेटे सा साथी पाकर माँ स्वर्ग का सिंघासन ठुकराने को तैयार खड़ी थी। कि अचानक बेटे ने अपनी शिक्षा के साथ, विदेश में ही बसने का फरमान सुना दिया।
आलीशान हवेली के आँगन में गौरी को जीवन की वीरान सांझ मुँह चिढ़ा रही थी। कभी तो खुद के साथ जीना सिख लिया होता।
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मौलिक व अप्रकाशित
विजय जोशी 'शीतांशु'
Comment
आपकी बेहतरीन लघुकथाओं की श्रेणी में एक और रचना। बेहतरीन अंतिम पंक्ति के साथ बेहतरीन शैली के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय विजय जोशी 'शीतांशु' जी। लेकिन मेरे विचार से 'प+रि+भा-षा' में लपेटने की आवश्यकता नहीं थी। 'साथी' स्वत: ही परिभाषित हुआ है न। बहुत ही गंभीर और उम्दा सृजन।
जनाब विजय जोशी जी आदाब,बहुत अच्छी लगी आपकी लघुकथा,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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