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Vijay Joshi's Blog (6)

लघुकथा :साथी

गौरी, पिता के स्नेहिल परिधि में एक साथी की परिभाषा का 'प' समझ पाई। उसी पिता के आँगन में एक लंबा सा साथ निभाने के लिए उसके बचपन को बांटने के लिए भाई के रिस्ते ने साथ दिया। तब वह साथी की परिभाषा के दूसरे पायदान पर 'रि' रूपी रिस्ते को समझने की कोशिश भर कर रही थी। पिता का वह आँगन गौरी की परवरिश के साथ-साथ, बेटी के पराये होने का एहसास भी कराता रहता था। उसकी शिक्षा-दीक्षा की इतिश्री मानकर पिता ने जीवन के लिए, फिर से एक साथी की तलाश शुरू कर दी। जो बेटी भाग्य विधाता होगा। पिता से भी ज्यादा अच्छे से…

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Added by Vijay Joshi on February 2, 2018 at 12:30am — 2 Comments

माँ की चिंता

/माँ की चिंता//

''माँ तुम आज फिर,अब तक जाग रही हो? कितनी बार समझा चुकी हूँ कि ठंडी रातों में इतनी देर तक जागना तुम्हारी सेहत के लिए ठीक नहीं है।"

फिर से अस्थमा का दौरा पड़ सकता है। तुम समझने का नाम ही नहीं लेती हो!

आई बड़ी समझाने वाली। 'बेटी, मेरी चिंता छोड़, जीना ही कितने दिन है।' और "जिसकी बेटी देर रात तक काम से लौटे उस माँ को नींद कहाँ से आएगी।"

माँ दरवाजे पर ही टकटकी लगाये बैठी थी।

'बेटी तेरा काम क्या है?' कहाँ काम पर जाती है?' किसके घर काम पर जाती...

बेटी ने बीच…

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Added by Vijay Joshi on January 30, 2018 at 9:37pm — 5 Comments

लघुकथा वसन्तोत्सव

कड़कड़ाती ठंड में वसुधा की कँपकपि असहाय हो रही थी। सूरज को इसकी खबर हुई तो वह बहुत दूर अपनी वार्षिक यात्रा पर था। शीघ्र लौट कर सब ठीक करने का आश्वासन दिया। तो उसके लौटने की खबर से ही, ठंड ने अपना दायरा समेटना शुरू कर लिया।

वसुधा अपने नैसर्गिक रूप में पुनः खिलखिलाने लगी। वसुधा नव यौवना सी मुस्कान लिए साजन से मिलन के सतरंगी सपने सजाने लगी। हाथों में मेहँदी रंग रचने लगा।

पतझर से प्रकृति ने धरा पर रांगोली सजाई। तो वन उपवन में अमलताश ,पलाश, शिरीष , ने वसुधा के लिए वंदनवार सजाएं।…

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Added by Vijay Joshi on January 30, 2018 at 9:00pm — 3 Comments

बचपन (लघुकथा)~शीतांशु

1 ||बचपन||



मैं मध्य अवकाश के बाद हमेशा स्कूल से छूमंतर हो जाता । दीदी, अक्सर बैग उठाकर लाती । और घर पर मुँह बंद रखने के बदले मुझसे चॉकलेट जरूर लेती थी। किन्तु मैं बेफिक्र होकर कभी फूलों के लिए 'चम्पा की बॉडी', बेर के लिए नरसिंग टेकड़ी, तो कभी पिकनिक मनाने 'भेडलेश्वर-बड़दख्खन' के बाग में , नदी किनारे चले जाते था। और ठीक स्कूल छूट्टी के समय पर घर लौट आने का क्रम चलता रहा। मैडम की शिकायत भी दीदी संभाल लेती। दोस्तों के साथ नीम, इमली,आम के कई नन्हें पौधें गोबर के ढ़ेर व रुखड़े पर से निकाल कर… Continue

Added by Vijay Joshi on February 7, 2016 at 3:15am — 6 Comments

मौत के मुँह से (लघुकथा)

सोहन नर्मदा किनारे महिष्मति क्षेत्र में नर्मदा परिक्रमावासियो की लिए सदाव्रत प्रारम्भ करने जा रहा है। उसकी आँखों में वह दृश्य घूमने लगा। जल पीकर सीढ़ियों पर लेटे सोहन को बेहोशी छाने लगी। उस पार से आ रही एक नाव की सवारी ने उसे जगाया।

"भाई तू ब्राह्मण का बालक है ना ? यह अन्न दान लेI"

अपनी पहनी हुई धोती में वह अन्न लेकर सोहन मौत के मुँह से घर लौटा आया।

"आज घर में केवल दलिया शेष बची थी। तेरे पिता जी को जोरो से भूख लगी थी, सो मैंने खिला दी,बेटा|" स्कूल से लौटकर…

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Added by Vijay Joshi on November 18, 2015 at 12:00pm — 4 Comments

प्रयास (लघुकथा)

"मधु ! पिता जी का खाना भेज दिया ?"

"हाँ ! बाबा हाँ ! रोज नियम से भेज देती हूँ।" रविवार रमेश स्वयं ही टिफिन लेकर चला जाता। उस दिन बाप -बेटे पुश्तैनी मकान में घण्टों बातें करते और शाम को घर लौटते समय पिता जी रमेश को हमेशा की तरह टोकते:

"बेटा ! बहु-बच्चों का ख्याल रखना।"

आज मधु की छोटी बहन-जीजा आये हुए, देखकर रमेश ने मधु को बिना कुछ बताये टिफिन सेंटर से खाना भर कर भिजवा दिया। मधु ने भी खाना भिजवा दिया। पिता जी की खुशियों का ठिकाना न था। आज रमेश प्रसन्नचित होकर घर पहुँचा तो मधु…

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Added by Vijay Joshi on October 16, 2015 at 7:00pm — 5 Comments

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