अपने कोमल कान्धो पर
कचरे की बोरी ढोता बचपन
कहीं चाय के ढाबे पर
झूठे बरतन धोता बचपन
कहीं है भोजन की बर्बादी
कहीं भूख से रोता बचपन
तन पर फटे पुराने कपड़े
हाथ में भीख कटोरा पकड़े
उम्मीदों के धागों में
सपने नये पिरोता बचपन
दिन भर सड़कों चौराहों पर
मजबूरी लेकर बाहों पर
मई जून की कड़ी धूप में
अपना बदन भिगोता बचपन
अपने नन्हे हाथों से
साहब के जूते चमकाता
नाम नही है कोई इसका
ये तो बस छोटू कहलाता
जबकि कहते हैं ईश्वर का
बाल रूप है होता बचपन
कहीं चाय के ढाबे पर
झूठे बरतन धोता बचपन...
.
ललित कैलाश
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
Thanks to all, for encouragement
आदरणीय ललित कैलाश जी, इस अच्छी रचना के लिए बधाई।
बचपन की नियति, यथार्थ और संवेदनशील परिस्थितियों पर बढ़िया रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय ललित कैलाश जी।
ओ बी ओ मंच पर आपका स्वागत है आदरणीय ललितजी , अच्छी कविता लिखी है जिसके लिए आपको हार्दिक बधाई | आदरणीय मोहम्मद आरिफ साहब की बातों पर ध्यान दीजियेगा | सादर
आदरणीय ललित कैलाश जी आदाब,
सर्वप्रथम ओबीओ मंच पर आपका हार्दिक स्वागत है । बचपन की विवशता को रेखांकित करती बेहतरीन कविता । हार्दिक बधाई स्वीकार करें । कुछ वर्तनीगत अशुद्धियाँ हैं जैसे:-कान्धो/कांधों, मजबूरी/मज़बूरी, नन्हे/नन्हें , बाहो/बाँहों ।
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