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प्रवासी पीड़ा(कविता )

प्रवासी पीड़ा

शहर पराया गाँव भी छूटा

चाँदी के चंद टुकड़ों ने

हमको लूटा-हमको लूटा-हमको लूटा |

भूख खड़ी थी जब चौखट पे

कदम हमारे निकल पड़े थे

मिल गई रोटी शहर में आकर

पर अपनों का अपनेपन का

हो गया टोटा-हो गया टोटा-हो गया टोटा |

माल कमाया सबने देखा

रात जगे को किसने देखा

मेहमां-गाँव से ना उनको रोका

एक कमरे की ना मुश्किल समझी

दिल का हमको 

कह दिया छोटा-कह दिया छोटा-कह दिया छोटा |

शहर में देखा भरा मोहल्ला

धक्कम पेली हल्लम-हुल्ला

जज्बातों की कीमत लगती

बातों की भी कीमत लगती

इंसानी रिश्तों का झीना

हो गया पल्ला-हो गया पल्ला-हो गया पल्ला |

गाँव में अब जो जाता हूँ

वीराना फैला पाता हूँ 

उड़ गए सारे नए पखेरू

कित को अब सहचर हेरूँ

रह गई बाकी बूढ़ी काकी

 नाटे दद्दा सुखे चच्चा 

लंगड़े लल्ला लंगड़े लल्ला लंगड़े लल्ला |

कुछ रिश्ते जो अपने लगते थे

वो भी अब रूठें लगते हैं

माँग न लें अपना हक-हिस्सा

इसलिए ना उनको अच्छे लगते हैं

गाँवो की अभिलाषा लेकर

शहरों में घुटते रहते हैं

पाया शहर में बहुत मगर,गोरख

रहा निठल्ला रहा निठल्ला रहा निठल्ला |

सोमेश कुमार (2009 ,मौलिक एवं अमुद्रित)  

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 11, 2018 at 2:50pm

इस भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई ।

Comment by Shyam Narain Verma on March 9, 2018 at 4:35pm
बहुत  ही सुन्दर भावात्मक प्रस्तुति .. बधाई 

कृपया ध्यान दे...

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