आदमी और नदी
पहाड़ों से निकलतीं थीं झूम-झूम कर
खो जाती थीं एक-दुसरे में घूम-घूम कर
विशद् धारा बन जाती थी
एक नदी कहलाती थी
समुंदर में जाकर प्रेम करती सुरूप
हो जाती एकरूप |
आदमी भी कुछ ऐसा था
स्वीकारता दुसरे को
चाहे दूसरा जैसा था
आदमी होना प्रथम था
बाद में ज़मीन-पैसा था |
आदमी का मेल-मिलाप /सभ्यता रचता था
इसी तरह एक राज्य/एक देश बसता था |
बाद में नदी को जरूरत के हिसाब से मोड़ा गया
उसे नहरों और फिर नालियों में तोड़ा गया |
आदमी भी जमीन-पैसे से बँटता गया
और अपने मूल स्वभाव से कटता गया |
नहरें बनने से सम्पन्नता आई/बंजर जमीने लहराईं
पर नैसर्गिक जंगल खो गए/हरे मैदान बंजर हो गए |
पैसे-ज़मीन ने आदमी को कुनबे में बाँटा
गरीब-अमीर दलित-ठाकुर नस्लों में बाँटा
इससे लाभ कम हुआ और बढ़ गया घाटा |
आदमी आदमियत भूल कर सब कुछ हो गया है
नदी की तरह जन्मा नैसर्गिक आदमी
अपनी बनाई हुई नहरों में खो गया है |
सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )
Comment
आद0 सोमेश जी सादर अभिवादन। बढिया कविता कही आपने, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार कीजिये
जनाब सोमेश कुमार जी आदाब,सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।
वाह बहुतखूब..बोलती हुई कविता लगी आपकी रचना..बधाई
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