(फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन)
हो रहा उनका हर वक़्त दीदार है |
मेरी आँखों में तस्वीरे दिलदार है |
कुछ तो है दोस्तों शक्ले महबूब में
देखने वाला कर बैठता प्यार है |
उनका दीदार मुमकिन हो कैसे भला
उनके चहरे पे बुर्क़े की दीवार है |
मुझ पे तुहमत दग़ा की लगा कर कोई
कर रहा ख़ुद को साबित वफ़ादार है |
चाहे दीदारे दिलबर ,दवाएं नहीं
वो हकीमों मुहब्बत का बीमार है |
उसको क्या वारदाते जहाँ की ख़बर
जो पढ़े ही नहीं रोज़ अख़बार है |
चाहे कुछ भी हो अंजाम तस्दीक़ अब
कर दिया उनसे उल्फ़त का इज़्हार है |
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय समर साहब,
इधर बहुत सारा वक़्त ऐसी व्यस्तताओं में जाया हुआ है जिनका साहित्य से कोई लेना देना नहीं है इसलिए मंच पर हाजिर नहीं हो सका,
पिछली टिप्पणियाँ सफ़र से लौटते हुए की गयी त्वरित टिप्पणियाँ थी. गाड़ी में हिल हिल के ग़ालिब और नासिर काज़मी का अमलगम बन गया. खैर. शेर गलत जरूर था तथ्य मेरे ख़याल से ठीक है.
ईता दोष शब्द के बढे हुए अंशो की समानता पर निर्भर करता है. जैसे रोता और आता में बढ़ा हुआ अंश ता है लेकिन उसके पहले का स्वर सामान नहीं है इसलिए ये हमकाफिया नहीं हो सकते लेकिन यहाँ बात और है :
दीदार = दीद + आर
दिलदार = दिल + दार
दोनों शब्दों के बढे हुए अंश सामान नहीं है इसलिए यहाँ ईता दोष नहीं हो सकता. अर्थ की भिन्नता के बारे में पहले कह चूका हूँ .
सादर
जनाब अजय तिवारी साहिब आदाब,बहुत दिन बाद आपके दर्शन हुए?
आपने मेरा संकेत समझ लिया ।
मतले में यक़ीनन ईता दोष है,मैं इस बिंदु पर जनाब निलेश साहिब से सहमत हूँ,अगर आप इसे ईता नहीं मानते तो बराह-ए-करम बताएँ कि इस दोष को क्या कहते हैं? और आज तो आपने ग़ज़ब कर दिया कि ग़ालिब और नासिर काज़मी के मिसरों को और वो भी अलग अलग बहूर के,मतला बना दिया,भाई आप तो ऐसे न थे ।
आदरणीय निलेश जी,
मेरे प्रत्युलर से पहले आपकी दूसरी पोस्ट भी आ गई. मैं अभी सफ़र में हूँ. इस विषय फिर लौटता हूँ.
आदरणीय निलेश जी,
दो शेर ओवरलैप हो गए. ग़ालिब का मतला ये है :
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तश्ना-ए-फ़रियाद आया
मैंने ने अपनी राय रखी है और वो गलत भी हो सकती है.
आ. अजय जी ..
ग़ालिब साहब की जिस ग़ज़ल का आप ज़िक्र कर रहे हैं वो कुछ यूँ है..
.
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तिश्ना-ए-फ़रियाद आया
दम लिया था न क़यामत ने हनूज़
फिर तिरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया
सादगी-हा-ए-तमन्ना यानी
फिर वो नैरंग-ए-नज़र याद आया
उज़्र-ए-वामांदगी ऐ हसरत-ए-दिल
नाला करता था जिगर याद आया
ज़िंदगी यूँ भी गुज़र ही जाती
क्यूँ तिरा राहगुज़र याद आया
क्या ही रिज़वाँ से लड़ाई होगी
घर तिरा ख़ुल्द में गर याद आया
आह वो जुरअत-ए-फ़रियाद कहाँ
दिल से तंग आ के जिगर याद आया
फिर तिरे कूचे को जाता है ख़याल
दिल-ए-गुम-गश्ता मगर याद आया
कोई वीरानी सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया
मैं ने मजनूँ पे लड़कपन में 'असद'
संग उठाया था कि सर याद आया .
यानी तर, फर, घर आदि क़वाफ़ी है ..और याद आया रदीफ़ है..
अस्तु:
सादर
आ. अजय जी
.
दिल जिगर तिश्नालब फ़रियाद आया
वो तेरी याद थी अब याद आया ....
इन दो मिसरों की तक्तीअ कर के देखिये ..शायद ही ग़लिब ने ऐसा कहा होगा..
सानी मिसरा नासिर काज़मी साहब के मतले का सानी है ....
दिल धड़कने का सबब याद आया
वो तेरी याद थी अब याद आया....
अगर नासिर साहब ने तरही ग़ज़ल भी कही है तो ये संभावना नगण्य है कि वो मतले में तरही मिसरा रखेंगे ..
.
आप अपनी टिप्पणी का पुनरावलोकन कीजिये और इता को इता ही समझिये
सादर
आदरणीय तस्दीक साहब,
आदरणीय निलेश जी ने इता की संभावना जताई है लेकिन मेरे ख़याल से इता तो नहीं है क्योकि मतले के दोनों 'दार' में अर्थ का फर्क है.
दिल जिगर तिश्नालब फ़रियाद आया
वो तेरी याद थी अब याद आया - ग़ालिब यहाँ दोनों 'याद के अर्थ अलग है. इसलिए काफिया ठीक है.
आदरणीय समर साहब का संकेत मेरे ख़याल से वाक्य संरचना की तरफ है.
ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई.
ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है आ. तस्दीक़ साहब..
मतले में ईता दोष है शायद..
देखिएगा
सादर
मुहतरम जनाब समर साहिब आदाब , ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का
बहुत बहुत शुक्रिया | बुर्क़े की मिसाल दीवार से मेरे हिसाब से सही है क्योकि वो भी एक
चेहरे पर पर्दा ही तो है , आपके हिसाब से हो सकता है सही न हो | पढ़े ----पढ़ता , यह लोकल
ज़बान का लफ्ज़ है जो उत्तर प्रदेश में कई जगह बोला जाता है | जैसे ---करे है ----करता है
चले है ---चलता है , उधर शोरा अक्सर इन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते हैं , यह मेरी भी आदत
में है ----सादर
जनाब हर्ष महाजन साहिब , ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का
बहुत बहुत शुक्रिया |
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