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दुश्मन भी अगर दोस्त हों तो नाज़ क्यूँ न हो,
महफ़िल भी हो ग़ज़लें भी हों फिर साज़ क्यूँ न हो ।
है प्यार अगर जुर्म मुहब्बत क्यूँ बनाई,
गर है खुदा तुझमें तो वो, हमराज़ क्यूँ न हो ।
रखते हैं नकाबों में अगर राज़-ए-मुहब्बत,
जो हो गई बे-पर्दा तो आवाज़ क्यूँ न हो ।
दुश्मन की कोई चोट न होती है गँवारा,
गर ज़ख्म देगा दोस्त तो नाराज़ क्यूँ न हो ।
संगीत की तरतीब में तालीम बहुत है,
फिर गीत ग़ज़ल में सही अल्फ़ाज़ क्यूँ न हो ।
झेला है उसने इश्क़-ए-समंदर में पसीना,
वो ईंट से रोड़ा बना अंदाज़ क्यूँ न हो ।
इंसान की औलाद हूँ, न हिन्दू मुसलमाँ,
है 'हर्ष' मेरा नाम तो फ़ैयाज़ क्यूँ न हो ।
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मौलिक व अप्रकाशित
हर्ष महाजन
Comment
आदरणीय कबीर जी प्रोत्साहन के लिए दिली शुक्रिया । सर आप गुरुजनों रहनुमाई में हर अहसास संवारना चाहता हूँ । छोटी सी छोटी गलती भी अगर हो तो बताइयेगा ज़रूर सर ।बहुत बहुत शुक्रिया ।
सादर ।
क़वाफ़ी के लिहाज़ से अब आपकी ग़ज़ल ठीक हो गई, कुछ शिल्प की कमजोरियां हैं जो धीरे धीरे आप क़ाबू पा लेंगे ।
एक क़ाफिये के बारे में पहले नहीं बतया था कि 'नाराज़' क़ाफ़िया उर्दू के हिसाब से सौती क़ाफ़िया है, लेकिन हिन्दी में चल जायेगा ,प्रयास करते रहें ।
आदरणीय समर कबीर जी आदाब । सर आपके नर्गदर्शन में मैं ओहिर से एक कोशिश आपके समक्ष लेकर आया हूँ । अपने कीमती वक़्त में से कुछ वक्त इधर भी दीजियेगा ।
सादर ।
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दुश्मन भी अगर दोस्त हों तो नाज़ क्यूँ न हो,
महफ़िल भी हो ग़ज़लें भी हों फिर साज़ क्यूँ न हो ।
है प्यार अगर जुर्म मुहब्बत क्यूँ बनाई,
गर है खुदा तुझमें तो वो, हमराज़ क्यूँ न हो ।
रखते हैं नकाबों में अगर राज़-ए-मुहब्बत,
जो हो गई बे-पर्दा तो आवाज़ क्यूँ न हो ।
दुश्मन की कोई चोट न होती है गँवारा,
गर ज़ख्म देगा दोस्त तो नाराज़ क्यूँ न हो ।
संगीत की तरतीब में तालीम बहुत है,
फिर गीत ग़ज़ल में सही अल्फ़ाज़ क्यूँ न हो ।
झेला है उसने इश्क़-ए-समंदर में पसीना,
वो ईंट से रोड़ा बना अंदाज़ क्यूँ न हो ।
इंसान की औलाद हूँ, न हिन्दू मुसलमाँ,
है 'हर्ष' मेरा नाम तो फ़ैयाज़ क्यूँ न हो ।
आदरणीय सुरेंद्र जी आदाब । शुक्रिया आप मेरी इस रचना पर आए और अपना कीमती वक़्त दिया। जिस मुतल्लक आपने फरमाया उसी दिशा में गुरु तुल्यआदरणीय निलेश जी और आदरणीय समर जी के मार्गदर्शन में ही आगे बढ़ने का प्रयास हो रहा है ।
सादर
आद0 हर्ष महाजन जी आपके प्रयास की तारीफ करता हूँ पर काफ़ियाबन्दी बन्दी गलत हो गयी है। आप आद0 आली जनाब समर साहब और भाई नीलेश जी के बातों का संज्ञान लीजिये और इस मंच ग़ज़ल से सम्बंधित लेखों का लाभ लीजिये। सादर
आदरणीय समर जी आपके मार्गदर्शन के लिए तह ए दिल शुक्रिया ।
नए नुक्ते वाले काफिये लेकर जल्द आपकी निगरानी में हाज़िर होता हूँ सर ।
सादर ।
जनाब बृजेश जी ये ग़ज़ल आपको "बढ़िया" क्यों लगी? बताने का कष्ट करें ।
तीसरे शैर में 'इतराज़' क़ाफ़िया नहीं चलेगा,क्योंकि सही शब्द है "ऐतिराज़"इसी तरह 'मुहताज' और ' सरताज' क़वाफ़ी नहीं चलेंगे,क्यों कि इन के अंत में 'ज' है और आपके क़वाफ़ी "ज़" के चल रहे हैं।
'आवाज़' 'परवाज़' क़वाफ़ी ले सकते हैं ।पुनः प्रयास करें ।
आदरणीय नीलेश जी आदाब आपकी टिप्पणी में दिए सुझाव ओर नर्गदर्शन में कुछ सुधार किया है । कृपया ज़रा अपने कीमती वक़्त में से कुछ पल इधर दीजियेगा ।
सादर ।
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दुश्मन भी अगर दोस्त हों तो नाज़ क्यूँ न हो,
महफ़िल भी हो ग़ज़लें भी हों फिर साज़ क्यूँ न हो ।
है प्यार अगर जुर्म मुहब्बत क्यूँ बनाई,
गर है खुदा तुझमें, वो हमराज़ क्यूँ न हो ।
पर्दे में छुपा रखता हूँ वो राज़-ए-मुहब्बत,
गर आबरू हो ज़ख्मी तो इतराज़ क्यूँ न हो ।
दुश्मन की कोई चोट न होतीं है गँवारा,
गर ज़ख्म देगा दोस्त तो नाराज़ क्यूँ न हो ।
संगीत की तरतीब में तालीम बहुत है,
फिर गीत ग़ज़ल, बहरों की, मुहताज़ क्यों न हो ।
झेला है अगर इश्क़-ए-समंदर में पसीना,
तो 'हर्ष' तू हालात का सरताज क्यूँ न हो ।
आ0 बृजेश जी उत्साहवर्धन जे लिए शुक्रिया ।
सादर ।
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