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...
ज़ुदा हुआ पर सज़ा नहीं है,
न ये समझना ख़ुदा नहीं है ।
ज़रा सा नादाँ है इश्क़ में वो,
सबक़ वफ़ा का पढ़ा नहीं है'
दिखाऊँ कैसे वो दिल के अरमाँ ,
चराग दिल का जला नहीं है ।
है दर्द गम का सफर में अब तक,
कि अश्क़ अब तक गिरा नहीं है ।
न वो ही भूले ये दिल दुखाना,
यहाँ अना भी खुदा नहीं है ।
न देना मुझको ये ज़ह्र कोई,
हुनर तो है पर नया नहीं है ।
लिपट जा आकर तू ऐ महब्बत,
जनाज़ा रुख़्सत हुआ नहीं है'
********
मौलिक व अप्रकाशित
--------हर्ष महाजन
Comment
आदरणीय नीलेश जी ऊला मिसरा ठीक करते सानी बिगड़ गया ।
ज़रा सा वो इश्क़ में है नादाँ,
सबक इश्क़ का पढ़ा नहीं है ।
चल आ लिपट जा तू ऐ मुहब्बत,
ज़नाज़ा रुक्सत हुआ नहीं है ।
आखिरी शेर के ऊला मिसरे को यूँ भी तो लिख सकते हैं
चल आ लि /पट जा /तू ऐ मु/हब्बत
121 / 22 /121/22
सादर ।
आ. हर्ष जी
इश्क़ का मतलब पढ़ा नहीं है ।
इश्क को इ शक न पढ़े ..
सादर
आदरणीय Sheikh Shahzad Usmani जी आदाब । आपको पेशकर्दा रचना पसंद आयी मेरा लिखना सार्थक हुआ । उम्मीद है आप यूँ ही आते रहेंगे । शुक्रिया सर ।
सादर ।
आदरणीय नीलेश जी आदाब । आपकी आमद हर बार मुझे कुछ सीखा जाती जाती है । सबसे पहले तो शुक्रिया सुधार हेतु बारीकी से देख मुझे मार्गदर्शन देने के लिए । आपके निर्देशानुसार वो दोनों शेर दुबारा लेकर आया हूँ सर ज़रा अपना कीमती वक़्त दीजियेगा ....
ज़रा सा वो इश्क़ में है नादाँ,
इश्क़ का मतलब पढ़ा नहीं है ।
.
तू आ लिपट जा मुझे मुहब्बत,
ज़नाज़ा रुक्सत हुआ नहीं है ।
आपकी इंतज़ार में
सादर
पते की बात। इंसानों के अहसास की बात। बेहतरीन सृजन के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद और शुभकामनाएं आदरणीय हर्ष महाजन जी।
आ. हर्ष जी,
मुश्किल बहर पर अच्छा प्रयास हुआ है..
ज़रा सा है वो इश्क़ में नादाँ
आजा लिपट जा तू ऐ मुहब्बत,... ये दोनों मिसरे बहर में नहीं हैं...
पूरी ग़ज़ल वक़्त माँग रही है
सादर
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