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ख़ुद को क़िस्सा-गो समझे है हर क़िरदार कहानी में
क़तरा ख़ुद को माने समुन्दर जाने किस नादानी में.
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कैसा हिटलर कौन हलाकू, साहिब गर्मी काहे की
इक दिन सब को जाना है इतिहास की कूड़े दानी में.
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तैर नहीं सकते थे माना लेकिन चल तो सकते थे
डूब मरे हैं कुछ बेचारे टखनों से कम पानी में.
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जादू का इक झूठा कपड़ा पहने फिरते हैं साहिब
और ठगों की पौ-बारह है उनकी इस उर्यानी में.
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पहले जिस के लफ्ज़ लबों के पार न आने पाते थे,
शख्स वही इक सबसे माहिर निकला तल्ख़-बयानी में.
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देख के उन को हमने नकली ग़म का चेहरा पहन लिया,
उन की मुश्किल बढ़ जाती गर मिलते हम आसानी में.
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याद तुम्हे मैं कर लेता हूँ जब जी घुटने लगता है,
डूब के साँसें पा जाता हूँ यादों की तुग्यानी में.
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जानें कब होंगे वो दाना जानें कब वो समझेंगे
वस्ल की रात गुज़र जाती है उनकी आनाकानी में.
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नूर है मंज़िल “नूर” ही राही बस रस्ता अँधियारा है,
दुनिया तुझ में यूँ रहता हूँ जैसे तेल हो पानी में.
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पुछल्ला
दुश्मन दुश्मन चिल्लाते हैं फिर भी गले लगाते हैं
सोचो कैसा स्वाद बसा है मरियम की बिर्यानी में.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
बहुत खूबसूरत और बेहद दिलचस्प गजल के लिए हार्दिक बधाई और एक खास बात यह भी है सर कि आपकी और कबीर साहब की बातचीत से बहुत सारी बातें पता चली है साफ हुई है बातचीत जारी रखिए जब तक हम लोग देख रहे हैं सादर धन्यवाद
फ़िरोज़ुल लुग़त वाले मौलवी फिरोज़ुद्दीन तो जहान-ए-फ़ानी से कूच कर गये, उनके दस्तख़त लेने मुझे भी वहीं जाना होगा भाई,:))))
धन्यवाद आ श्याम नारायण वर्मा जी
आभार
आ. समर सर,
आप जहाँ कहेंगे वहाँ sign कर दूँगा लेकिन पहले उस आदमी के साइन लाइये जिसने मुर्ग़ को मुर्गी कर दिया,,,,
सादर
:)))))))))
इसका अर्थ ये हुआ कि आने वाले समय में,
'इत्र दान' को " इत्र दानी"
'गुलदान' को " गुलदानी"
'पाइ दान' को "पाइ दानी"
किया जा सकता है,और तर्क यही होंगे जो आपने दिये हैं,और अह्ल-ए-ज़बान हक्का बक्का ।
"मह्व-ए-हैरत हूँ कि दुनिया क्या से क्या हो जायेगी" ;););)
सुन्दर भावों से सजी इस गज़ल के लिए आपको बहुत बधाई ..सादर |
आ. समर सर,
हिंदी में स्त्रीलिंग / पुल्लिंग के अतिरिक्त बड़ा -छोटा होने का भेद भी इसी तरह निरुपित किया जाता है ..
जैसे
कटोरा-कटोरी
हथौड़ा -हथौड़ी
घंटा-घंटी ... उसी तरह
कूड़ेदान -कूड़ेदानी ..... साबुनदानी- मच्छरदानी
भाषा स्वयं को अभिव्यक्त करने से रास्ते ख़ोज लेती है ....
हिंदी में महानता नामक कोई शब्द नहीं है लेकिन धड़ल्ले से प्रयोग होता है ..
ग़ालिब ने अपना 80% काम फ़ारसी में किया क्यूँ कि उर्दू को स्वयं लेकिन आज ग़ालिब जाने जाते हैं उनके 20% काम के लिए जो उन्होंने उर्दू में किया... वो ज़बान जो लगातार भाषाओँ को, नए शब्दों को आत्मसात कर रही है और अपना स्वरूप वृहद बना रही है ..
मद्दाह की लुगत में मुर्गी शब्द ही नहीं है लेकिन इस में ग़लती मुर्गी की नहीं है... लुगत बनाने वालों को बोलचाल के शब्द अपनाने पड़ेंगे, ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी हर साल 20-25 नए शब्द अपना लेती है और वो ऐसा गर्व से करते हैं जिस अंग्रेज़ी की स्वीकर्यता बढ़ती है..
एक हिंदी और उर्दू ही ऐसी हैं जो शुद्धता के नाम पर शब्द हटा रही हैं ..कुछ वर्षों बाद कूड़ेदानी इतना आम हो जाएगा कि लोग कूड़ेदान भूल जायेंगे और पुरानी हिंदी/ उर्दू के कई शब्दों की तरह हमें मतलब देखने के लिए लुगत उठानी पड़ेगी ..
जावेद साहब की एक लिंक भेज रहा हूँ.. जिस से भाषाई मिश्रण/ अपभ्रंशता पर कुछ टिप्पणियाँ हैं.. देखिएगा
https://www.youtube.com/watch?v=Cv3tfll9Sr0
सादर
आ. समर सर,
शेर ख़ारिज तो कर दूँ.. लेकिन वो साहब बुरा मान जायेंगे जिनके लिए कहा है ;) ;) ;)
सादर
भाई,जावेद साहिब भी सहीह,आन लाइन तफ़्तीश भी सहीह,लेकिन 'कूड़े दान' कुड़ेदानी नहीं हो सकता,दस अशआर की ग़ज़ल में एक शैर की क़ुर्बानी तो वाजिब होगी न ।
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