क्या बरखा जब कृषि सुखानी।
ना जाने कब धरती हिल जानी।।
सूख न जाए आंखों का पानी।,
सपने हो गए अच्छे दिन,
याद आ रही नानी.
अबहूँ न आए, कब आएंगे
या करते प्रतीक्षा खप जाएँगे?
इन्तजार करते करते, हो गई कितनी देर
कब आएँगे पता नहीं, कैसे दिनन के फेर?
रामराज सपना हुआ, वादे अभी हैं बाकी
कह अमृत अब पानी भी, नहीं पिलावे साकी!
अब तक तो रखी सब ने, इस सिक्के की टेक
चलनी जितनी चली चवन्नी, फेंक सके तो फेंक!
चलते चलते में ही तू अपनी बाटी सेक!
बाकी की बुनियाद पर, अधर भवन है बांधा.
झटपट सरपट कदम से, भावी लक्ष्य को साधा.
अनिश्चय की है धुंध, पड़ रहे मौकों के भी फेर।
चोर सिपाही खेल खेलते शातिर सवा सेर।
कालिख की है कोठरी, सभी जनता के जंवाई.
कर्त्तव्य परायण कारिंदे, सयाने खाएं मलाई।
स्वाभिमान की होली, सब नकटों ने जलाई.
अंधाधुंध की होड़ में है, लोकतंत्र की दुहाई!
-मौलिक और अप्रकाशित
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