भले देख लो जग सारा, सबसे प्यारा देश हमारा.
कण कण में इसके अपनापन, अपना भारत सबसे न्यारा.
गंगा यमुना सरस्वती जैसे मिल कर संगम हो जाती.
अनेकताएं विविध यहाँ, एक हो हम दम जो जाती.
प्राचीनतम संस्कृति हमारी, सबको समावेशित कर देती.
अपनी पहचान बनाए रख मा, सबको अपना कर लेती.
सदियों आक्रान्ताओं से जूझे हम, नहीं कभी मिटी हस्ती.
है अमरत्व सनातन का, बनी रही अपनी मस्ती.
कालचक्र परिवर्तन में, राजतन्त्र मिट हुआ लोकतंत्र.
अपने शाश्वत…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on January 26, 2024 at 1:00pm — 1 Comment
ज़िन्दगी के कीड़े
सुरेन्द्र वर्मा
दो स्थितियां होती हैं – एक मिथ, अंधविश्वास, रूढियों, कर्मकाण्डों की, तो दूसरी बुद्धि, विवेक, तर्क, सोच-विचार और ज्ञान की। एक पक्ष कहता है कि कहीं न कहीं आस्था तो टिकनी ही है, जब सब जगह से निराश हो जाएं, तो जहां कहीं से आशा की किरण जीवन में प्रवेश करती है, वहीं शरण ले लेते हैं और फिर वहां विज्ञान और तर्क बौने पड़…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on October 7, 2023 at 10:14pm — No Comments
क्या बरखा जब कृषि सुखानी।
ना जाने कब धरती हिल जानी।।
सूख न जाए आंखों का पानी।,
सपने हो गए अच्छे दिन,
याद आ रही नानी.
अबहूँ न आए, कब आएंगे
या करते प्रतीक्षा खप जाएँगे?
इन्तजार करते करते, हो गई कितनी देर
कब आएँगे पता नहीं, कैसे दिनन के फेर?
रामराज सपना हुआ, वादे अभी हैं बाकी
कह अमृत अब पानी भी, नहीं पिलावे साकी!
अब तक तो रखी सब ने, इस सिक्के की टेक
चलनी जितनी चली चवन्नी, फेंक…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on June 4, 2018 at 5:00pm — No Comments
राष्ट्र का विकास रास्ते में पड़ा नहीं है,
विकास की राह में हर कोई बढ़ा नहीं हैं.
पर बयार बह रही है विकास की.
आम नागरिक ख़ुशी से उछल रहा है,
टैक्स की मार भी चुपचाप सह रहा है,
विकास की धार में बह रहा है.
नीति धर्म स्पष्ट है, समझ जाओगे.
सेवा करो, मेवा पाओगे,
सेवा करवाओगे तो
सेवा कर चुकाओगे.
नौकर मालिक से अड़े नहीं,
आज्ञाकारी माथे पे चढ़े नहीं,
ईमानदार सिर्फ शिकायत करता है.
और चुपचाप अपना काम करता…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on July 25, 2016 at 7:00pm — 3 Comments
विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून: क्या हम आप इसमें कहीं शामिल हैं? इस वर्ष खाद्यान्न की झूठन छोड़ने और संरक्षण न करने से होती बर्बादी को रोकने पर दृष्टि है.ध्येय नारा है: सोचो, खाओ, बचाओ. …
Added by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on June 5, 2013 at 6:00am — 9 Comments
कारगिल के बाद
वीरों ने दिया प्राणों का, बलिदान व्यर्थ न हो जाए।
हर बार घात को मात भी दी। टेढ़ी चालें कर दी सीधी।
पर हारें कूटनीतिक बाजी। करते युद्धविराम राजी राजी।।
आगे बढ़ते विजयी-कदम, वापिस कभी न हो पाएं।
वीरों ने दिया प्राणों का, बलिदान व्यर्थ न हो जाए।।
लालों के खून की जो लाली। करती सीमाओं की…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on May 3, 2013 at 6:00am — 5 Comments
पंच सब टंच
जिंदगी की जंग से अंग सब तंग लेकिन
पाश्चात्य के रंग सब हुए मतवाले हैं।
निर्धन अधनंग पिसे, महंगाई के पाट बीच
चूर चूर स्वप्न मिले आंसुई परनाले हैं।।…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on May 2, 2013 at 6:00am — 6 Comments
(रचना 1996 में एक संस्थान के निदेशक को समर्पित थी, पर आज के राष्ट्रीय सन्दर्भ में भी सटीक लगती है)
मुखिया पद की आन, महाराज! कुछ करें
शिकायत जायज़ है, प्रजा साथ नहीं
कल तक थे जहां, हैं वहीं के…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on May 1, 2013 at 6:00am — 8 Comments
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
दिल दिल्ली का बहुत बड़ा, पाषाण हृदय है बहुत कड़ा।
(फिर भी) ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
ना कोई चिन्ता ना ग्लानि, ना करुणावश बिलखानी
नीति नैतिकता के ह्रास पर,अनामिका की लाश पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
बिसर गए कर्तव्यों पर, दिशाहीन वक्तव्यों पर,…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 23, 2013 at 11:30am — 10 Comments
स्वतंत्रता के 66 वर्ष बाद, जन सामान्य को क्या मिला? आज भी सोने की चिड़िया के बचेखुचे पंख, भक्षक बन कर रक्षक ही नोच रहे हैं, अल्पसंख्यकों का एक वर्ग असुरक्षा के नाम पर बहुसंख्यकों पर अविश्वास कर रहा है- राजनेताओं की दादुरनिष्ठाओं से सभी हतप्रभ हैं: - संस्कारहीन समाज अपनी दिशाहीन यात्रा के उन मील के पत्थरों पर नाज कर रहा है जिनके नीचे शोषितों की आहें दफन हैं। ऐसे में, भारतीय लोकतन्त्र का चेहरा किस स्वर्णिम आभा से चमक…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 18, 2013 at 1:30pm — 6 Comments
(दशकों पहले आदिल लुख्नवी की एक रचना ‘दुम’ पढने में आयी थी, उससे प्रेरित हो कर 1986 में ये रचना की. वैसे आदिल जी की रचना भी अंतर्जाल पर उपलब्ध है. आशा है, सुधी जनो को ये प्रयास भी नाकारा तो नहीं लगेगा. ये भी मेरे पूर्व प्रस्तुतियों की भांति अप्रकाशित रचना है)
दुम
कुदरत की नायाब कारीगरी है…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 15, 2013 at 6:30pm — 9 Comments
चैत्र पवित्र नवरात्री , साल नया ये खास.
गुडी पडवा में नींव पड़े, चहुंदिश सुख की आस.
सुख दुख गतिक्रम सृष्टि का, चले सनातन चक्र.
किसी…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 11, 2013 at 6:00am — 4 Comments
मन की
विभिन्न चेष्टाओं के
फिसलने धरातल पर
असंख्य आवर्तन
धकेलती कुण्ठाओं के.
पूर्वजों से
अर्जित संस्कारों का क्षय
आत्मघाती विचारों का
प्रस्फुटन और लय.
क्षितिज अवसादों के,
दिखाते शिथिल आयामों की
सूनी डगर
टूटते स्वप्नों पर
पथराई नजर.
उभरती शंकाएं, विचलित श्रद्धाएं.
हाहाकार करते, प्रश्रय खोजते
थके हारे प्रयास
अनन्त शून्य की अनन्त यात्रा
भय से…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 9, 2013 at 2:30pm — 11 Comments
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