ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
दिल दिल्ली का बहुत बड़ा, पाषाण हृदय है बहुत कड़ा।
(फिर भी) ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
ना कोई चिन्ता ना ग्लानि, ना करुणावश बिलखानी
नीति नैतिकता के ह्रास पर,अनामिका की लाश पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
बिसर गए कर्तव्यों पर, दिशाहीन वक्तव्यों पर,
नैतिकता के द्वन्द्व पर, कुर्सी खातिर रचे फन्द पर
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
पूर्वोत्तर जातीय उन्माद पर, गुडियाओं के आर्तनाद पर,
सिद्धान्तहीन गठजोड़ों पर, अवसरवादी घोडो पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
अस्मत की बर्बादी पर, लूट अपहरण आदि पर
कत्ल होते परिवारों पर, संवेदनहीन आवारों पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
अन्तहीन घोटालों पर, रक्षा सौदों के दलालों पर
बहुराष्ट्रवाद के पोषण पर, और स्वदेशी के शोषण पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
जातिवाद की रीतों पर, अलगाववाद के गीतों पर
निर्दोषों के अन्तों पर, राजनीति के सन्तों पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
प्रच्छन्न देह व्यापारों पर, सरे आम बलात्कारों पर
घायलों की चीत्कारों पर, खोखले विकास नारों पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
पुलिस थानों के हाल पर, भुखमरी के सवाल पर,
सुरक्षा के बवाल पर, अधिकारीयों की चाल पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
जनाक्रोश अभिव्यक्ति पर, और पुलिस की सख्ती पर,
आकाओं की भक्ति पर, और विरोध की तख्ती पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
आचरण-मर्यादा के खून पर, राजनीति के जनून पर
सदनों की गरिमा गिराने पर, सत्य जनता से छुपाने पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
राष्ट्रसम्मान के समझौतों पर, और क्रिकेट के न्योतों पर,
सीमा सैनिक की मौतों पर, राज कर रहे खोतों पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
हाथबन्धे वीरों की मौतों पर, सुरक्षा में होते गोतों पर
नित होती जनधन हानि पर, बेशर्मी और लाचारी पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
तस्करी के ज़खीरों पर, राष्ट्रद्रोही तकरीरों पर
निर्दोष लहू की लकीरों पर, भावहीन तकरीरों पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
दिशाहीन विद्वानों पर, देश बेचू नादानों पर
विघटनकारी मंत्रों पर,असुरक्षित गणतंत्रों पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू
("मौलिक और अप्रकाशित")
Comment
आपकी रचना समय की मांग है। बधाई!
मार्मिक भावों से भरी समसामयिक घटना पर लिखी सुन्दर रचना पर सादर बधाई स्वीकारें.
संवेदनशील सामयिक रचना के लिए बधाई आदरणीय सुरेन्द्र वर्मा जी
हाथबन्धे वीरों की मौतों पर, सुरक्षा में होते गोतों पर
नित होती जनधन हानि पर, बेशर्मी और लाचारी पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
बहुत सुन्दर रचना बन पड़ी है आदरणीय //बधाई!
इतने पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है अब भी दिल्ली न रोई तो फिर और क्या कहना होगा ....
कुछ नये शब्दों का प्रयोग भी मन को भाया // , देश बेचू नादानों पर//
अनामिका से अभिप्राय दामिनी से होगा ...
सादर गीतिका 'वेदिका'
इस कृति के माध्यम से आपने लगभग हर पहलु पर थाप दी है. सफल रचना. बधाई!
आदरणीय सुरेन्द्र जी आपकी कही बात का सम्पूर्ण देश समवेत स्वर में गान कर रहा है| जनता की भावनाओं को स्वर देने के लिए आपको साधुवाद|
जातिवाद की रीतों पर, अलगाववाद के गीतों पर
निर्दोषों के अन्तों पर, राजनीति के सन्तों पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
प्रच्छन्न देह व्यापारों पर, सरे आम बलात्कारों पर
घायलों की चीत्कारों पर, खोखले विकास नारों पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
सटीक रचना, वैसे सच कहें तो आज पूरा देश रो रहा है।
BAHOT KHOOB....................
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