मापनी २१२२ २१२२ २१२२ २१२२
गाँव से आकर नगर में फिर वो’ मंजर ढूँढते हैं
ईंट गारे के महल में गाँव का घर ढूँढते हैं
रौशनी देने सभी को मोम पिघला भी, जला भी
पूजना हो यदि कभी तो लोग पत्थर ढूँढते हैं
दौरे हुए जब साहबों के, वो चुनावी दौर था
गाँव वाले अब नगर में रोज दफ्तर ढूँढते हैं
जुल्म सहने की हमें यूँ हो गईं हैं आदतें कुछ
रहजनों के तम्बुओं में रोज रहबर ढूँढते हैं
खूब सारा दर्द देकर हो गया ओझल नजर से
क्या करें हम फिर वही प्यारा सितमगर ढूँढते हैं
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
ईंट गारे के महल में गाँव का घर ढूँढते हैं ..... आदरणीय जी वाह बहुत सुंदर अहसासों की प्रस्तुति
वाह अति सुंदर।
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