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ख्वाब कोई तो मचलना चाहिए

मापनी - 2122 2122 2122 212


जिन्दगी में ख्वाब कोई तो मचलना चाहिए

गर लगी ठोकर तो’ क्या, फिर से सँभलना चाहिए


सीखना ही जिन्दगी है उम्र का बंधन कहाँ

लोग बदलें या न बदलें, खुद बदलना चाहिए


कैद होकर घर में’ बैठोगे भला तुम कब तलक

शाम को इक बार तो घर से निकलना चाहिए


और कितने दर्द देगी जिन्दगी हमको यहाँ

ये अँधेरी रात गम की आज ढलना चाहिए


लात घूँसे छोड़ दो सब, बैठकर बातें करो  

बातों’-बातों में न हरदम ही उछलना चाहिए


आये’ जब भी आँच अपने मान और सम्मान पर

तब हमारा रक्त थोड़ा तो उबलना चाहिए


पीठ पीछे वार पर रखिये सदा तीखी नजर

दाल दुश्मन की यहाँ बिलकुल न गलना चाहिए


मोड़ दो यदि रुख हवा का, तब तो’ कोई बात है

साथ सबके भीड़ बन यूँ ही न चलना चाहिए


कुछ तो’ कम हों आदमी से आदमी की दूरियाँ

बर्फ रिश्तों पर जमी है, अब पिघलना चाहिए

"मौलिक एवं अप्रकाशित "

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Comment

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on July 16, 2018 at 5:07pm

आदरणीय समर कबीर जी सादर नमस्कार, आपकी स्नेहिल समीक्षा और सुझावों का तहे दिल से शुक्रिया, यूँ ही स्नेह बनाये रखें , सादर नमन 

Comment by Samar kabeer on July 16, 2018 at 4:32pm

जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है, बधाई स्वीकार करें ।

मतले के सानी मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर देखें 'लग गयी' ।

दूसरे शैर के ऊला मिसरे में गेयता की कमी है और शिल्प भी कमज़ोर है, मिसरा यूँ किया जा सकता है:-

'सीखना ही ज़िन्दगी है, उम्र का बंधन कहाँ'

कैद हो कब तक घरों में आप रहिएगा यहाँ'

इस मिसरे में भी यही बात लागू होती है,इसे यूँ किया जा सकता है:-

"क़ैद होकर घर में बैठोगे भला तुम क़ब तलक'

जब कभी भी आँच आये मान पर सम्मान पर'

इस मिसरे में 'कभी' के साथ 'भी' खटकता है, इस मिसरे को यूँ किया जा सकता है:-

'आये जब भी आँच अपने मान और सम्मान पर'

मोड़ दो गर रुख हवा का, तब तो’ कोई बात है'

इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर देखें,मिसरा यूँ कर लें तो ऐब निकल जायेगा:-

'मोड दो रुख़ गर हवा का,तब तो कोई बात है'

आख़री शैर के सानी मिसरे में 'जमीं' को "जमी" कर लें ।

बाक़ी शुभ शुभ

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