बड़े जतन से सिले थे’ माँ ने, वही बिछौने ढूँढ रहा हूँ
ढूँढ रहा हूँ नटखट बचपन, खेल-खिलौने ढूँढ रहा हूँ
नदी किनारे महल दुमहले, बन जाते थे जो मिनटों में
रेत किधर है, हाथ कहाँ वो नौने-नौने ढूँढ रहा हूँ
विद्यालय की टन-टन घंटी, गुरुवर के हाथों में संटी
बरगद वृक्ष तले भंडारे, पत्तल दौने ढूँढ रहा हूँ
डाँट-डपट सँग रूठा-राठी, मीठी-मीठी लोरी माँ की
बुरी नजर का काला धागा, कहाँ डिठौने ढूँढ रहा हूँ
चार-चार दिन की बारातें, पंगत में गारी से बातें
मधुर मिलन वो हँसी-ठिठोली, स्वप्निल गौने ढूँढ रहा हूँ
कल-कल करते झरने नदिया, साँझ समय बहती पुरवाई
वन में निडर कुलाँचें भरते, वो मृग-छौने ढूँढ रहा हूँ
सारा जीवन बीत चला है, अमृत का घट रीत चला है
सौंधी-सौंधी माटी का घर, स्वप्न सलौने ढूँढ रहा हूँ
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय Gurpreet Singh जी आपका दिल से शुक्रिया
इस खूबसरत ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय बसंत कुमर शर्मा जी
आदरणीय Samar kabeer जी आपके आशीष को सादर नमन, अप्रतिम सुझाव
आदरणीया Neelam Upadhyaya जी आपका दिल से शुक्रिया
आदरणीय Shyam Narain Verma जी आपका दिल से शुक्रिया
आदरणीय Mohammed Arif जी आपका दिल से शुक्रिया
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी आपका दिल से शुक्रिया
आदरणीय somesh kumar जी आपका दिल से शुक्रिया
आदरणीय TEJ VEER SINGH जी आपका दिल से शुक्रिया
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,मात्रिक बह्र(बह्र-ए-मीर) में अच्छी ग़ज़ल कही आपने,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतले का ऊला मिसरा यूँ कर लें तो ऊला और सानी में 'कहाँ'शब्द की तकरार ख़त्म हो जायेगी:-
'सिले थे माँ ने बड़े जतन से,वही बिछौने ढूँढ़ रहा हूँ'
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