स्वर्ण-कलश हो गए लबालब,
क्यों हूँ अब तक रिक्त पड़ा.
जाने कब नंबर आयेगा,
यही सोचता रहा घड़ा.
नदिया सूखी, पोखर प्यासी,
तालाबों की वही कहानी.
झरने खूब बहे पर्वत से,
जाने किधर गया सब पानी.
गूगल से भी पूछा उसने,
मगर प्रश्न है वहीं खड़ा.
घूप्प अँधेरी रही तलहटी,
सूरज उगा नित्य शिखरों पर.
झुलस रहा धरती का आँचल,
सुनता एक न उसकी अम्बर.
मेघ सिन्धु पर बरसाने को,
इंद्र देवता रहा अड़ा.
कहाँ कभी बरगद के नीचे,
कोई भी पौधा उग पाया.
कब देती हैं बड़ी मछलियाँ,
छोटी मछली को शरमाया.
आखिर में तो वही बचा, जो
अपनी दम पर हुआ बड़ा.
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
हृदय से आभार आद्न्रिया प्रतिभा पांडे जी आपका
वाह बहुत सुन्दर हार्दिक बधाई आदरणीय । धूप्प/ धुप्प
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