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अनुसरण- लघुकथा –

अनुसरण- लघुकथा –

माँ भारती अपनी संध्याकालीन पूजा अर्चना से निवृत होकर जैसे ही प्रांगण में आयीं। उन्होंने देखा कि उनके बच्चे दो गुट में बंटे हुए एक दूसरे पर तमंचों से गोलियाँ दाग रहे थे। एक गुट हर हर महादेव के जयकारे लगा रहा था और दूसरा गुट अल्ला हो अकबर के नारे लगा रहा था। माँ भारती स्तब्ध रह गयीं।

उन्होंने तुरंत बच्चों को रोका,"बच्चो, यह क्या कर रहे हो तुम लोग"?

"माँ, हम लोग हिंदू मुसलमान खेल रहे हैं"।

"पर यह खेल कौन सा है"?

"यह हिंदू मुस्लिम दंगा है"।

"नहीं, मेरे बच्चो,  हिंदू मुस्लिम दंगा खेल नहीं होता है। वह तो एक अप्रिय हादसा है। कोई दूसरा खेल खेलो"।

"मगर हम को तो हिंदू मुसलमान वाला खेल ही खेलना है"।

"जरूर खेलो लेकिन अच्छा वाला"।

"तो आप ही बताइये ना, अच्छा वाला खेल"।

"तुमने देखा है ना तुम्हारे पापा और रहीम के अब्बू कैसे ईद और दिवाली एक साथ मिलकर मनाते हैं। वही खेलो तुम भी।अनुसरण  ही करना है तो अच्छी चीज़ का करो"।

बच्चे खुशी से उछल पड़े और सब एक स्वर में चिल्लाये,"हाँ, यह ठीक है।यह बढ़िया खेल है"।

और बच्चों ने उसी वक्त तमंचे ज़मींन पर पटक दिये और एक दूसरे के गले मिलकर जोर से बोले ,"ईद मुबारक़"।

मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by TEJ VEER SINGH on August 28, 2018 at 2:00pm

हार्दिक आभार आदरणीय नीता कसार जी। लघुकथा के मर्म को समझने और उसे पसंद करने के लिये शुक्रिया।

Comment by TEJ VEER SINGH on August 28, 2018 at 1:58pm

हार्दिक आभार आदरणीय समर क़बीर साहब जी। आपने मेरी लघुकथा के मर्म को समझा और उसे पसंद किया। बेहद खुशी हुई।पुनः आभार।

Comment by Nita Kasar on August 27, 2018 at 6:08pm

हिंदू,मुसलमान बाद में पहिले हम माँ भारती की संतान है ।संदेशप्रद कथा के लिये बधाई आद० तेजवीर सिंह जी ।

Comment by Samar kabeer on August 27, 2018 at 2:13pm

जनाब तेजवीर सिंह जी आदाब,बहुत उम्दा पैग़ाम देती,अच्छी सोच वाली लघुकथा लिखी आपने,वाह बहुत ख़ूब, इस शानदार प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

Comment by TEJ VEER SINGH on August 26, 2018 at 4:43pm

हार्दिक आभार आदरणीय शेख उस्मानी साहब जी।आपके सुझाव बेहद उत्तम हैं।कुछ हद तक मेरी भी सहमति है।देखिये क्या हो सकता है।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 26, 2018 at 6:00am

"ई़द-अल-अद़ह़ा" के त्याग व क़ुर्बानी वाले संदेश के समसामयिक मौक़े पर हमारी गंगा-जमुनी तहज़ीब से सराबोर त्योहार-जश्नों की स्वाभाविकता पर रौशनी डालती सकारात्मक व विचारोत्तेजक और प्रेरक लघुकथा हेतु तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद और ई़द मुबारक मुहतरम जनाब तेजवीर सिंह  साहिब। जनाब सुशील सरना जी की टिप्पणी और आपके जवाब दोनों से सहमत हूँ। समाधान यह भी हो सकता है कि संवाद के वाक्य // वही खेलो तुम भी// को थोड़ा सा बदल कर यूं किया जा सकता है : //वही तहज़ीब दोहराओ अपने खेलोंं में तुम भी!//... या ऐसा ही कुछ मेरे विचार से! दूसरा सुझाव यह की उस संवाद में इस.वाक्य की विशेष आवश्यकता नहीं लग.रही है : //अनुसरण ही करना है तो अच्छी चीज़ का करो"।//.. क्योकि यह भाव तो रचना व उसके शीर्षक से स्वतः सम्प्रेषित हो ही रहा है। सादर।

Comment by TEJ VEER SINGH on August 25, 2018 at 8:36pm

हार्दिक आभार आदरणीय सुशील सरना जी।आपने ठीक सोचा कि ईद और दिवाली कोई खेल नहीं होते। मेरे विचार से दंगे भी खेल नहीं होते।यह हम लोगों की सोच है मगर बच्चे ऐसे नहीं सोचते।बच्चों के खेलने के दायरे बहुत बड़े होते हैं।जैसे - रामलीला खेलना, रेलगाड़ी खेलना, घर घर खेलना, कुछ भी खेल लेते हैं।उनके मन बेहद निर्मल और कोमल होते हैं। जो कहो , उसी पर विश्वास कर लेते हैं।सादर।

Comment by Sushil Sarna on August 25, 2018 at 6:04pm

बहुत सुंदर और संदेशप्रद लघुकथा का सृजन हुआ है आदरणीय। हार्दिक बधाई सर। आदरणीय क्षमा सहित यहाँ एक बात मुझे खटक रही है और वो ये कि ईद और दिवाली पर गले मिलना शायद खेल नहीं एक आपसी सद्भाव का उत्तम उदाहरण है। तो बच्चों को कहना ''वही खेलो तुम भी'' थोड़ा सा खटका। कृपया मेरे कहे को अन्यथा न लेवें। वैसे प्रस्तुतिकरण बेहतरीन है। सादर। ..

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