चंदा से गपियाने के दिन
कहाँ कठिन थे
’राजनीति’ को छोड़ो
कैसे अच्छे दिन थे।
टीलों पर,
रथ ले अपना
भाग निकलते थे,
अब विमान में डर है
नौ ग्यारह फिर आये;
घसीटते जीवन को,
बोर हुई यात्रायें,
जेटलेग के मारे
नींद रुष्ट हो जाये;
इंटरनेट बिना भी
न थी झंझट कहीं भी
सभी खुले में होते
जश्न, कहाँ केबिन थे।
वह भी युग था, खाने के,
बहुत सलीके थे
पंगत बैठी, भोजन,
करते दरी बिछाकर;
अब दे ठोकर क्यू में,
शरम कहाँ अपनो की,
शोर-गुल दिखावे का
करते जला जला कर;
बुफे कहो फैशन में,
गिद्धभोजन भले ही
याद रहा घीसू का,
ढ़ाबा, चले टिफिन थे।
द्द्दू की मोटर के पीछे
भागा करते
चाचा ताऊ फटकारें,
सब के होँठ सिले;
चना चबेना में खुश थे,
पर कौर छीनते
जी चाहा शर्त बहस,
फिर रो कर गले मिले
मन किया,
सोये खाट, बिछाते, अंगना में
मोरी पर,
धो लेते, हाथ, कहाँ बेसिन थे।
( मौलिक और अप्रकाशित )
Comment
बबिता जी , बहुत बहुत धन्यवाद।
बेहतरीन रचना, गुजरे जमाने की और आधुनिक जीवन शैली की तुलना व कटाक्ष करती रचना,हार्दिक बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीय हरिहर सरजी।
मुझे भी यही एक कविता नज़र आ रही है आपकी ।
आदरणीय समर कबीर जी, नाम लिखने में पिछली बार भूल हुई क्षमा चाहता हूँ।
मुझे 'My Blog' में एक और केवल एक कविता दिख रही है। क्या आपको इस कविता के अलावा मेरी अन्य
चार-पाँच कवितायें दिखती है? मुझे शंका है मेरे ही दो एकाउंट मिक्स-अप हो गये हैं।
मैंने प्रबंधन समिति को समस्या लिख दी है और उत्तर का इंतजार है।
आद0हरिहर झा जी सादर अभिवादन। बढ़िया रचना है पर यह दुबारा पोस्ट हुई है। एक बात और आपने "आदरणीय समीर जी" लिखा है अपने प्रतिउत्तर में जबकि सहीह नाम "समर कबीर" है, देखियेगा।
इसका जवाब तो प्रबन्धन समिति ही देगी,आदरणीय ।
आदरणीय समीर जी, नमस्कार। मुझे केवल एक बार ही दिख रही है। दो बार दिखने पर संपादन मंडल को एक हटा देने का पूरा अधिकार है।
एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि फोरम के लिये कविता केवल ब्लोग (My Blog) पर लगानी है या फोरम के कमेंट में भी।
कुछ दिनो पहले मेरी कुछ गलती से सदस्यता समाप्त हो गई थी फिर उसी दिन पुन: मिल भी गई। पुरानी चार पाँच कविता जो अब गायब हो चुकी थी पुन: My Blog में लोड की पर एक दो दिन में वे सब गायब हो गई। मुझे लगा पुन: लोड करना शायद संपादन मंडल को अच्छा नहीं लगा।
जो भी स्थिति हो कृपया अवगत करायें।
जनाब हरिहर झा साहिब आदाब,ये रचना आपने दोबारा पोस्ट कर दी है,देखियेगा ।
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