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माया-काया के चक्कर मे, उलझे जाने कितने लोग।

दूर तमाशा देख रहे हैं, हम जैसे अनजाने लोग॥

ठगनी माया कब ठहरी है,एक जगह तू सोच ज़रा।

बौराए से फिरते रहते, कुछ जाने पहचाने लोग॥

हँसना-रोना, खोना –पाना, जीवन के हैं रंग कई। 

दुख से भागे, मैख़ाने मे,पैमाने पी जाते लोग॥

जिसकी गाड़ी ने कल बदला, इन्सानो को लाशों मे।

उसके दर पे कब से बैठे, माँग रहे हरजाने लोग॥

ऊँची-ऊँची बातें करना, जिनकी फितरत होती है।

उतने ज्यादा घर मे गहरे,रखते हैं तैखाने लोग॥

मैंने तो दस्तूर निभाया, हंस कर उनसे बातें की।

बिना वजह गढ़ने लगते हैं, कितने ही अफसाने लोग॥

आँधी और तूफानों से ये, “दीप” नहीं बुझने वाला।

धरती पर दो चार बचे बस, हम जैसे परवाने लोग॥

  

-प्रदीप भट्ट-(अगस्त-2008)

 

“रचना मौलिक एवं अप्रकाशित है”

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Comment by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 1, 2018 at 3:49pm

शुक्रिया समर जी,

Comment by Samar kabeer on October 1, 2018 at 2:40pm

जनाब प्रदीप भट्ट साहिब,मात्रिक बह्र पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकात करें ।

तीसरे शैर में क़ाफ़िया दोष है ।

5वें शैर में सहीह शब्द है "तहख़ाने"

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 29, 2018 at 7:20pm

बड़ी ही सरस रचना है आदरणीय...किस विद्या की रचना है लिखने से थोड़ी आसानी होती है..मुझे हिंदी ग़ज़ल लग रही है।

कृपया ध्यान दे...

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