चिन्ह
कोई अविगत "चिन्ह"
मुझसे अविरल बंधा
मेरे अस्तित्व का रेखांकन करता
परछाईं-सा
अबाधित, साथ चला आता है
स्वयं विसंगतिओं से भरपूर
मेरी अपूर्णता का आभास कराता
वह अनन्त, अपरिमित
विशाल घने मेघ-सा, अनिर्णीत
मंडराता है स्वछंद मेरे क्षितिज पर
उस "चिन्ह" से जूझने की निरर्थकता
मुझे अचेतन करती ले जाती है सदैव
निर्दयता से घसीट कर उस छोर पर
जहाँ से मैं अनुभवों की गठरी समेट
कुछ और पीड़ित
कुछ और अपूर्ण
उस एकांत में लौट आता हूँ
जहाँ संभ्रमित-सा प्राय:
स्वयं को जान नहीं पाता
...पहचान नहीं पाता
सोचता हूँ यह "चिन्ह"
कैसा एक-निष्ठ मित्र है मेरा
जो मेरी अंतरवेदना का
मेरे संताप का, हिस्सेदार बनकर
कभी इसका अपना हिस्सा नहीं मांगता
और मैं शालीनतापूर्वक अकेले
इस हलाहल को निसंकोच
शत-प्रतिशत अकेला पी लेता हूँ
पर उसके कसैले स्वाद को मैं
लाख प्रयत्न कर छंट नहीं पाता
वह "चिन्ह"
मेरा मित्र हो कर भी मुझको
अपरिचित आगन्तुक-सा
मानो अनुभवहीन खड़ा
असमंजस में छोड़ जाता है
और मैं उस मुद्रा में द्रवित
स्मृति-विस्तार में तैर कर
पल भर में देखता हूँ सैकड़ों और
ऐसे ही अविनीत मित्र
जो इसी "चिन्ह" से अनुरूप
निरंतर मेरा विश्लेषण
मेरा परीक्षण करते नहीं थकते
पर मैं चाह कर भी कभी
उनका विश्लेषण
उनका परीक्षण करने में
सदैव असमर्थ रहा
क्योंकि यह सैकड़ों चिन्ह
मेरे ही माथे पर ठहरे
प्रचुर प्रश्न-चिन्ह हैं
जिनमें उलझकर आज
मैं स्वयं
रहस्यमय प्रश्न-चिन्ह बना हूँ
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आद0 विजय निकोर जी सादर अभिवादन। बहुत सूक्ष्म दृष्टि है आपकी,, मानना पड़ेगा। बहुत यथार्थपरक रचना की है आपने। बधाई स्वीकार कीजिये।
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