सो न सका मैं कल सारी रात
कुछ रिश्ते कैसे अनजाने
फफक-फफक, रात अँधेरे
प्रात की पहली किरण से पहले ही
सियाह सिफ़र हो जाते हैं
अनगिनत बिखराव और हलचल
ढोते इस ढाँचे में बची हुई साँसें
बेतरतीब बेकाबू धकधक
सम्पूर्ण स्थिति का समीकरण करते
कितने कठोर वतसर बीत जाते हैं
तुम समय के संग, उन्मुक्त, आगे बढ़ गई
मैं भावप्रणव भावाकुल स्मृतियों से सराबोर
ओढ़े उस रिश्ते की छायाओं के धब्बे
समय के शिकंजे में बने भीतर रेगिस्तान में
समय के साथ ... समय का न रहा
मेरे लिए किसी एक ज़माने से
"रघुवीर रीति यही चली आई
प्राण जाई पर वचन न जाई"
तुम्हारे लिए "कहे" का मूल्याँकन
शायद नव-आविष्कृत गणित-सा रहा
"मैं कभी नहीं बदलूँगी"... उफ़्फ़
सोचता हूँ, सचाई है यह
या है मेरे सूने में काँप रहा
रुक-रुक कर आत्मा में बहता-सा लगता
आज जो फिर कराह रहा मेरा भोला विश्वास
उलझनों की थाहों में अधभूली लोरी गाते
हृदय के इन निर्जन प्रसारों में आज फिर
थपथपा रहा हूँ मैं रिश्ते के पिंजर को क्यूँ
जब छाती में है रुधिर से फूटता रहा
कल सारी रात कोई रुँधा हुआ उच्छवास
हाँ ... सो सका न मैं कल सारी रात
---------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
मेरे कहे को मान देने के लिए धन्यवाद ।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय बृजेश जी।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय लक्ष्मण जी।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सुरेन्द्र जी।
सराहना के लिए और मार्गदर्शन के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई समर कबीर जी। "सूने में कांप रहा" अथवा "सीने में कांप रहा".... लिखते समय सोच में तो "सूने में" था, परन्तु अब आपके संकेत पर सोचा तो "सीने में" भी ठीक लग रहा है। ओ बी ओ सीखने-सिखाने के लिए महत्वपूर्ण है, अत: जब भी हो अपनी सलाह देते रहें, मेरे भाई।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय नरेन्द्र सिंह जी
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय शेख श्हज़ाद उस्मानी जी
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय तेज वीर सिंह जी
वाह आदरणीय एक और भावों से परिपूर्ण कविता...ये विद्या मुझे हमेशा से आकर्षित करती है..मैं लिखना चाहता हूँ लेकिन अफ़सोस!!
आ. भाई विजय जी, सुंदर रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
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