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हौं पंडितन केर पछलगा (उपन्यास का एक अंश )

 

         बैसाख की दुपहरी में कंचाना खुर्द मोहल्ला बड़ा शांत था I गर्मी के कारण औरतें घरों में दुबकी थीं और मर्द घर के बाहर अधिकांशतः नीम या किसी अन्य पेड़ के नीचे आराम फरमा रहे थे I फ़कीर इस मोहल्ले में बड़े कुंए की तलाश करता-करता एक बड़े से उत्तरमुख घर के पास पहुँचा, जिसकी चार दीवारी के अन्दर आम, नीम व बरगद एवं पाकड़ आदि के कुछ पेड़ थे I घर का मालिक एक अधेड़ सा व्यक्ति बरगद के नीचे बड़े से तख़्त पर नीली लुंगी और सफ़ेद बनियाइन पहने लेटा था I तख़्त पर लाल रंग की ईरानी कालीन बिछी थी I एक खादिम सा दिखने वाला व्यक्ति उसके पाँव दबा रहा था Iबरगद की बायीं और एक विशाल पक्का कुआँ था Iकुंए के पीछे स्थित मकान का अग्रभाग पतली लखौरी ईंटों का बना था I उसके दरवाजों और खिड़कियोंके ऊपर सुन्दर मेहराब बने थे I मकान के पीछे का हिस्सा कच्चा था, जो पिरोड़ी मिट्टी से पुता था I उस पर फूस के छप्पर थे I मकान के दायीं ओर गलियारा था Iगलियारे के दूसरी ओरएक बड़ा सा ताल था Iफ़कीर ने अधेड़ व्यक्ति को देखकर हुंकार भरी – ‘अल्ला हू-----‘

अधेड़ व्यक्ति उठकर बैठ गया I खादिम सा दिखने वाला व्यक्ति उठकर खड़ा हो गया I वह धोती और बनियाइन पहने था I उसने कंधे पर एक लाल अंगौछा भी डाल रखा था I

‘यदि मेरा अंदाजा सही है तो कंचाने खुर्द का बड़ा कुआँ यही है I

‘आपने ठीक पहचाना I ’- अधेड़ व्यक्ति ने फ़कीर का स्वागत करते हुए पूछा – ‘जनाब कहाँ से तशरीफ़ ला रहे है ?’

‘मेरा कोई एक ठिकाना नहीं है Iबहता पानी देर तक कहीं नहीं रुकता I फिलहाल अभी तो शाह मदार के दरबार से होकर आ रहा हूँ I1

‘कौन वे कड़े-मानिकपुर वाले ?’

‘हाँ -हाँ,-- जनाब, उन्हें जानते हैं ?’- फ़कीर ने उत्साहित होकर पूछा I

‘काहे न जानूंगा I मानिकपुर में मेरी ससुराल है I

‘ओह ----किसके यहाँ ?’

‘शेख अलहदाद के यहाँ I‘

‘हाँ, जंवार में उनका बड़ा नाम है I मैंने उनके बारे में सुन रखा है I बड़ी किस्मत थी जो यहाँ

आपसे भेंट हो गयी I कहीं आप मलिक राजे अशरफ तो नहीं I1

‘लाहौलविलाकूवत ----- आप तो सब जानते हैं I पहुँचे हुए फ़कीर लगते हैं ?’

‘तोबा-तोबा ----- कैसी बात करते हैं ? मैं तो उसका एक अदना सा आशिक हूँ I आपके बारे में मुझे एक किसान ने रास्ते में बताया था I

‘अच्छा----अच्छा ----I ‘ मलिक अशरफ ने हँसते हुए कहा – ‘दरअसल मेरा नाम मालिक शेख ममरेज I  पर यहाँ लोग मुझे मलिक राजे अशरफ के नाम से जानते हैं I

‘मलिक ----कोई उपाधि है या सनद ? या क्या किसी बादशाह ने बख्शी है ?’

‘पहले आप तशरीफ़फरमां हों, फिर बात करते हैं I‘- राजे अशरफ ने फ़कीर से अनुरोध किया I फ़कीर जमीन पर फ़ैली बरगद की एक मोटी जड़ पर बैठ गया I राजे अशरफ ने उससे बार--बार तख़्त पर बैठने का अनुरोध किया पर फ़कीर नहीं माना I

‘ताज-ओ-तख्त से फ़कीरों का क्या वास्ता ?’- उसने निर्विकार भाव से कहा I

       मलिक ने खादिम से दिखने वाले उस व्यक्ति से कहा,’ अरे बख्तावर, जाओ बाबा फ़कीर के लिए कुछ जलपान लेकर आओ I

‘जलपान नहीं भाई I‘ - फ़कीर ने प्रतिवाद किया –‘सुबह से कुछ खाया नहीं, दो रोटी से काम चल जाएगा I

‘भोजन तो अभी मैंने भी नहीं किया I बख्तावर ज़रा देख तो कितनी देर है I बाबा फ़कीर हमारे साथ ही भोजन करेंगे I

       बख्तावर आदेश पाकर अंगौछे से मुख पोछता हुआ चला गया I उन दोनों में फिर बात शुरू हो गयी I

‘दरअसल हमारे पूर्वज ईरान से आये थे ‘- राजे अशरफ ने कहना शुरू किया - ‘हालाँकि अरबी भाषा में मलिक के मायने सेनापति, प्रधानमंत्री या राजा होता है और फारसी भाषा में बड़ा व्यापारी या अमीर I लेकिन ईरान में जमींदार को मलिक कहते हैं I

‘यानी कि आपके पूर्वज ईरान से यहाँ आये थे ?’

‘जी, बिलकुल --- वहाँ एक जगह है निगलाम I वहीं से आये थे I

‘मैंने तो सुना है कि तवारीखे फीरोजशाही के हिसाब से कि फ़ौज में बारह हजारी रिसालदार को ‘मलिक’ कहते है ?’ 1

‘हाँ, कहते होंगे, पर मुझे नहीं लगता कि हमारे खानदान में कोई कभी फ़ौज में रहा हो I दावे से कुछ नहीं कह सकते I

‘मलिक साहिब, जब आपके इश्मेशरीफ शेख ममरेज है, तो फिर लोग आपको राजे अशरफ क्यों कहते हैं ?’1

‘दरअसल हम अशरफ हैं I 2 और मशहूर सूफी फ़कीर हजरत ख्वाजा सैय्यद मखदूम अशरफ जहाँगीर अशरफी सेमनानी नूर बख्शी के वंश से ताल्लुक रखते हैं I चूँकि इनका जन्म ईरान के सेमनान कस्बे में हुआ था, इसलिए इन्हें सेमनानी कहा जाता है I वे वहाँ अपनी गद्दी छोड़कर हिदुस्तान आये थे I

‘अल्लाह हू ----‘ फकीर ने हाँक लगाई – ‘अगर मैं गलत नहीं हूँ जनाब, तो इनकी दरगाह अयोध्या के पास किछौछा शरीफ और बसखारी शरीफ के बीच में किसी स्थान पर है I3

‘बिलकुल, बाबा फकीर, आपने सही फरमाया I दरअसल ईरान से आकर यहाँ उन्होंने खूब घूम-

घूमकर सूफियत का प्रचार किया I  बहुत दिन तक जायस में रहे I जब पौरुष ढल गया तब किछौना शरीफ को अपना आख़िरी मुकाम बनाया और वहीं जन्नतनशीं भी हुए I

        फ़कीर कुछ और पूछना चाहता था तभी अचानक बख्तावर प्रकट हुआ –‘मालिक दस्तरखान लग गवा है I चलिये भोजन पाय लीजिये I

        राजे अशरफ ने फ़कीर को इशारे से चलने को कहा I भोजन से निवृत होकर दोनों फिर उसी बरगद के नीचे आये I

‘फ़कीर बाबा, आप भी तो सूफी है ?’- राजे अशरफ ने फिर से वार्ता का सूत्रपात करते हुए कहा I

‘हाँ,  मगर हमारी शाखा ईराक से है I इसकी ईजाद राबिया अल-अदहम ने की थी I अत्तार, रूमी और हाफिज जैसे संत इस परम्परा में हुए हैं I रास्ते भले ही सबके अलग हों पर मंजिल तो एक ही है I

‘वजा फरमाया I अब हम आपकी किंगरी के कमाल से रूबरू होना चाहते हैं I’ – राजे अशरफ ने विषयांतर करते हुए कहा I

‘जरूर-जरूर ---- दरअसल, भोजन करने के बाद से ही मेरी इच्छा हो रही थी कि कुछ गाऊँ I

‘सही समय है, सूरज का ताप भी अब कम हो गया है I

       फ़कीर की उंगलियाँ किंगरी पर थिरकने लगीं Iवातावरण एक मधुर झंकार से गूँज उठा I फ़कीर ने तान ली –

सकल बन फूल रही सरसों

अम्बवा फूटे,टेसू फूले,

कोयल बोले डार-डार,

औ गोरी करत शृंगार,

मलनियां गढवा ले आई करसों,

सकल बन --------

     जाने कब वहाँ एक भीड़ आकर जमा हो गयी I सभी सम्मोहित I सभी चित्रवत I मूर्च्छना का प्रभाव लोगों पर से उतर ही नहीं रहा था I अचानक फ़कीर उठ खडा हुआ I उसने अधारी अपने काँधे पर डाली और चलने को तैयार हुआ I

‘अब चलूँगा मलिक साहिब I ‘- फ़कीर ने भीड़ की और निगाह डालकर कहा I

‘जरूर पर पहले यह हकीर नजराना कबूल फरमाएं I

‘नजराना ----- और वह है क्या ?’

‘फकत एक टंका है ‘

‘तोबा-तोबा -------- मलिक साहिब, यह क्या हिमाकत है I आप तो अशरफिया खानदान से हैं I आपको तो पता है कि सूफी धन-दौलत से दूर रहना पसंद करते हैं I नजराने तो रजवाड़ों को दिये जाते हैं I उन्हीं को शोभा देते हैं I

        फ़कीर इतना कहकर खामोश हो गया I कुछ देर वह मौन और विचारमग्न खडा रहा I

‘गुस्ताखी की माफी चाहता हूँ , फ़कीर बाबा I ’ -मलिक ने पश्चाताप भरे स्वर में कहा –‘ आप खफा तो नहीं हुए न ?’

‘अरे नहीं-----सूफी हमेशा मस्त रहता है I’ –फकीर धीर से हँसा – ‘दरअसल मैं कुछ असमंजस में फँस गया हूँ I

‘कैसा असमंजस ?’

‘दरअसल आपसे एक बात साझा करना चाहता था, पर करूँ या नहीं, इसी पर अटक गया हूँ I

‘इसमें संकोच क्यों ? आप बेधड़क कहें I

‘इसके लिए मुझे एकांत चाहिए I‘- फ़कीर ने भीड़ की ओर देखते हुए कहा I मलिक ने भीड की तरफ हाथ से इशारा किया I थोड़ी ही देर में लोग तितर-बितर हो गए I

‘हाँ, अब बताइये ?’

‘मालिक साहिब, आपकी बेगम हमल से हैं ?’

‘हाँ, मगर आपने कैसे जाना ?’

‘दरअसल, भोजन परोसते समय मेरी उचटती निगाह आपकी बेगम पर पड़ी थी I मेरी समझ में बेहतर होगा कि आप इन्हें अपनी ससुराल ले जांय I

‘मगर क्यों, बाबा ?’

‘सारी बातें तो अल्लाह ही जाने, पर मैं आपको बता दूँ – ‘आपका घर बहुत जल्द मुनव्वर होने वाला है I

‘वह कैसे ?

‘आप बड़े भाग्यवान है I आपके आने वाले बच्चे का नाम तवारीखों में लिखा जाएगा I बड़ा सिद्ध फ़कीर और विद्वान् होगा वो I जायस का नाम उसके नाम से सारी दुनिया में मशहूर होगा i ‘’

‘ऐसा  ---?’ - राजे अशरफ की आँखे आश्चर्य से फैलती चली गयीं I

(मौलिक/अप्रकाशित )

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 29, 2018 at 10:10pm

आदरणीय समर  कबीर साहिब , आपका आभार कि अप  मेरे उपन्यास के अंश  पर आये i जायसी के जीवन वृत्त को लेकर हिन्दी जगत में यह पहला उपन्यास है  i फिर भी इस पर केवल आपकी एकमात्र टीप आयी i इससे लोगों की साहित्यिक अभिरुचि  का रहस्य स्वतः खुल जाता है i यह उपन्यास पूरा हो चुका है केवल  कुछ संशोधन चल रहा है और यह जायसी पर शोध करके श्रम से  लिखा गया है i आप सदैव मेरा उत्साहवर्धन करते है मैं पुन: आपका आभार प्रकट करता हूँ . 

Comment by Samar kabeer on November 22, 2018 at 10:50pm

जनाब डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आदाब,आपका नॉवेल बहुत उम्दा होगा,ये उसका अंश बता रहा है,बहुत बहुत बधाई आपको ।

क्या नॉवेल पूरा हो गया है?

Comment by Samar kabeer on November 19, 2018 at 10:22pm

इस प्रस्तुति पर अपनी टिप्पणी देने पुनः आता हूँ ।

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