पास इतना जो मन के वे आते नहीं
स्यात नयनों से यूं दूर होते नहीं
मिल के सपनों के दुनिया बसाते न जो
काँच के ये महल चूर होते नहीं
अब तो बर्बाद हूँ लुट गया हूँ सनम
अर्धविक्षिप्त हूँ और बेहाल हूँ
सोहनी-सोहनी रट रहा हूँ मगर
गम का मारा हुआ एक महिवाल हूँ
कोई गहरी अगर चोट खाते न जो
इस कदर दिल से मजबूर होते नही
पास इतना...
हमने वादा किया साथ मरने का था
क्योंकि जीना हमें रास आया नहीं
जिसने कसमें उठायीं थीं पर शान से
वह पुनः लौट कर पास आया नहीं
दुनिया वाले अगर माफ़ करते हमे
हम रवायत के नासूर होते नहीं
पास इतना...
झूठ कैसे असरदार होगा कभी
बात में बेतरह गर सफाई न हो
प्यार परवान कैसे चढ़ेगा अगर
उसमें थोड़ी बहुत बेवफाई न हो
रंग चढ़ता वफा का ज़रा भी मुझे
हम शहर भर में मशहूर होते नहीं
पास इतना...
कुछ जमाने की अलमस्त रफ़्तार है
रंग दुनिया का भी है बदलता नहीं
उठ न पायेगा गिरकर वही एक दिन
ठोकरें खा के भी जो सँभलता नहीं
हम सुबह भूलकर शाम आते न जो
तो यहाँ चश्मे-बद-दूर होते नहीं
पास इतना...
.
(मौलिक/अप्रकाशित)
Comment
आ. भाई गोपाल नारायण जी, सुंदर गीत हुआ है । हार्दिक बधाई ।
बहुत ही भावपूर्ण गीत के लिए बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब डॉ.गोपाल नारायण श्रीवास्तव साहिब।
जनाब डॉ.गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आदाब,अच्छा गीत लिखा आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'
रंग चढ़ता वफा का ज़रा भी मुझे
हम शहर भर में मशहूर होते नहीं..'
ऊपर की पंक्ति में 'मुझे' और नीचे की पंक्ति में 'हम'?
आदरणीय प्रणाम ,सुन्दर गीत के लिए बहुत बहुत बधाई आप को | सादर
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