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हौं पंडितन केर पछलगा *उपन्यास का एक अंश )

चौदहवीं की रात I निशीथ का समय I चाँद अपने पूरे शबाब पर I जायस के कजियाना मोहल्ले में एक छोटे से घर की छत पर गोंदरी बिछाए वही लम्बी सी पतली लडकी लेटी थी I उसकी सपनीली आँखों से नींद आज गायब थी I उसकी आँखों के सामने मुहम्मद का भोला किंतु खूबसूरत चेहरा बार-बार घूम जाता I कभी-कभी ऐसी नाटकीय घटनायें हो जाती हैं कि हम बेक़सूर होकर भी दूसरे की निगाहों में कसूरवार हो जाते हैं I उस लड़के ने मुझे उस हंगामे से बचाया I मेरा हाथ थामा I मुझे पानी से निकाला I हाथ थामने के मुहावरे का अर्थ सोचकर उसे उस सन्नाटे में भी कुछ लाज सी लगी I उसने अपने हाथ पर मुहम्मद के हाथों का दबाव फिर से महसूस किया I उसे अजीब सी बेचैनी महसूस हुयी – ‘हाय अल्लाह--- यह मुझको क्या हो गया ? मेरी आँखों की नींद क्यों काफूर हो गयी ?‘ विचारों ने फिर करवट बदली – ‘ वह शायद उसके पिता रहे होंगे, जिन्हें देखकर वह सहम गया था I उसके पिता ने मेरे बारे में क्या सोचा होगा ? मुझे ऐरी-गरी लडकी ही समझा होगा I किस कदर पानी से सराबोर थी मैं और वह भी I लो, मुझे तो बस अपनी ही चिंता है I उस लड़के की क्या दशा हुई होगी ? उसे अपने सीने में एक हूक सी उठती मालूम हुयी I वह मानो किसी जादू के असर से उठकर बैठ गयी I उसने पानी से अपना हाथ मुँह धोया और फिर अपना दुपट्टा सिर में लपेटकर नमाज पढ़ने लगी I नमाज पढ़ने से उसका ध्यान जो बंटा, उससे उसने राहत महसूस की I उसने एक बार फिर सोने की कोशिश की I सोते ही उस पर एक अजगुत सपना तारी हुआ I संध्या का समय I आधा चाँद I एक बड़ी ही खूबसूरत पहाड़ी नदी I नदी का वलयाकार घुमाव I वह आड़े-तिरछे अनगढ़ पत्थरों पर पाँव रखती नदी की बीच धारा में एक ऊँची चट्टान पर बैठी है I चारों और बस एक निस्तब्ध वातावरण है I कोई आदमी न आदमजात I सर्द हवा शरीर को बेध रही है I कुछ हिरण आकर नदी में पानी पीते हैं I हवा में झरता संगीत कुछ कहता है I लडकी सुनने का प्रयास करती है I पर कुछ समझ में नहीं आता I अचानक दूर से आती रबाब की आवाज सुनाई देती है I रवाब की धुन पर एक सोज आवाज उभरती है –‘ आवाज का दर्द लडकी के कानों में पिघले शीशे के मानिंद उतरता है - बाल्हा आव हमारे गेह रे, तुम बिनु दुखिया देह रे I एकमेक ह्वै सेज न सोवै, तब लग कैसा नेह रे I अन्न न भावै ,नींद न आवै ,मनवा धरे न धीर रे I बाल्हा आव हमारे गेह रे ------- लडकी जल-विहीन मछली की भाँति तड़प उठती है I उसकी आँखों से झर-झर कर आँसू बहने लगते हैं I वह विक्षिप्तों की तरह पुकारती है – ‘कहाँ हो तुम ? ‘ ‘कहाँ हो तुम ? ---कहाँ हो तुम ? ----कहाँ हो तुम ?’- पर्वतों से टकराकर प्रतिध्वनि लौट-लौट आती है I रबाब की आवाज मंद पड़ जाती है I स्वर का आना थम जाता है I लडकी को अन्तरिक्ष से आती बस एक ही ध्वनि सुनाई देती है – ‘बाल्हा आव हमारे गेह रे----‘ अचानक वातावरण में तेजी से परिवर्तन होता है I चाँद गायब हो जाता है I चारों ओर घना अँधेरा फ़ैल जाता है I हवा बंद हो जाती है I नदी का कल-नाद और मुखर होता है I चमगादड़ फड़फड़ाने लगते हैं I उल्लुओं की आवाज सुनायी देती है I झींगुर झंकारते हैं I किसी का क्रूर अट्टहास सुनाई देता है I लडकी डर के मारे थर-थर काँपने लगती है I नदी में सैलाब आ जाता है I लडकी उसमें ऊभ-चूभ होने लगती है I वह अवलम्ब की तलाश में अपने हाथ पसारती है – ‘बचाओ ---बचाओ I ‘ नदी का सैलाब तेज होता जाता है I लडकी निराश्रित धारा में बही जा रही है I वह अपनी चेतना खोने लगती है, तभी अचानक एक मजबूत हाथ उसके निरवलम्ब हाथ को थाम लेता है और जोर से अपनी ओर खींचता है I लडकी को यह हाथ जाना-पहचाना सा लगता है I उसके मुख से अपने आप निकलता है – ‘बाल्हा आव हमारे गेह रे-----I’ फिर मानो उसकी चेतना लौटती है- ‘ओह मुहम्मद, मेरा हाथ मत छोड़ना I कभी मत छोड़ना तुम I‘ ‘क्या बडबडा रही है तू ?’ – माँ ने उसे झिंझोड़ कर जगाया – ‘कोई बुरा सपना देखा है क्या ?’ लडकी उठकर बैठ गयी I दिन निकल आया था I उसने माँ की ओर देखकर उदास स्वर में कहा – ‘हाँ माँ, सपना ही तो था I ‘

(मौलिक / अप्रकाशित )

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Comment by Samar kabeer on December 5, 2018 at 11:36am

जनाब डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आदाब,आपके उपन्यास के अंश पढ़ने के बाद उपन्यास पढ़ने को दिल बेक़रार है,

'जब रात है ऐसी मतवाली

तो सुब्ह का आलम क्या होगा'

बहुत बहुत बधाई आपको ।

Comment by Samar kabeer on December 1, 2018 at 11:31am

समय मिलते ही पुनः आता हूँ,इस प्रस्तुति पर ।

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