जायस के ऊसर में खानकाह बने कई माह बीत चुके थे I किछौछा से आये हजरत खवाजा मखदूम जहाँगीर किसी परिचय के मोहताज नही थे I बहुत जल्द ही उनके पास मुरीदों और मन्नतियों की भीड़ आने लगी i मुहम्मद यद्यपि छोटा था पर वह अक्सर वहाँ जाने लगा i वह बुजुर्ग पीर के छोटे-मोटे काम कर देता I पीर तो उसका भविष्य जान ही चुके थे I वह भी उसे अपने पोते की तरह मानने लगे I
एक दिन पीर सफ़ेद भेड़ की उन का लम्बा चोगा पहने अपनी पसंदीदा खानकाह में बैठे थे I उनके चेले और कुछ मजहबपरस्त लोग उन्हें घेरे हुए थे I
‘पीर बाबा, सूफी का अल्लाह का देख सकत है ?’ एक ने पूछा I
‘अल्लाह दिखता नहीं , उसका अनुभव होता है I यह अनुभव सभी लोग कर सकते हैं I ’
‘ऊ कैसे ?’
‘अरे भाई यह सारी खुदाई ऊपर वाले का अक्स ही तो है I ’
‘पैगम्बर तो यह नहीं मानते ?’
‘पर सूफी मानता है I जिस प्रकार एक सूरज पानी से भरे सैकड़ों घड़ों में दिखता है I वैसे ही अल्लाह भी हर जगह हर वस्तु में है I‘1
‘यह तो हिन्दू भी कहते हैं ?’
‘हिन्दू तो यह भी मानता है कि वह ऊपर वाले का ही एक हिस्सा है जैसे पानी की बूँद महासागर का हिस्सा है I पर सूफी यह नहीं मानता I हम जैसे आईने में अपनी तस्वीर देखते है तस्वीर हू-बहू हमारे जैसी होती है I पर वास्तव में वह तस्वीर हम नहीं है I वैसे ही यह खुदाई उसकी तस्वीर है पर खुदा अलग है I ’
‘क्या हम अल्लाह को पा सकते हैं ?’- एक अन्य शागिर्द ने प्रश्न किया I
‘हाँ, पा सकते है I ’
‘पर कैसे ---?’
‘मुहब्बत से --- अल्लाह से मुहब्बत करो I अल्लाह की बनाई चीजों से मुहब्बत करो I आदमी हो तो हर आदमी से मुहब्बत करो I मुहब्बत का पैगाम सारी दुनिया में बाँटो I अपने दिल में नफरत का भाव आने न दो I‘
‘यह कैसे हो सकता है ? गलीज चीजों से तो खुद ब खुद नफरत हो जाती है I’
‘यह रियाज से मुमकिन है I मन को साधना पड़ता है I‘
‘अल्लाह को देखा नहीं तो उससे मुहब्बत कैसे होगी ?’
‘अरे भाई, अभी तो कहा यह सारी खुदाई ही अल्लाह की तस्वीर है, इसे तो देखते हो न ?’
शिष्य चुप हो गया I इसी समय मुहम्मद अपने चार यारों के साथ उधर आया I वह पहले हाजी शेख की खानकाह में गया i वहाँ वे साधना में व्यस्त थे I उनके मुरीद मुबारक शाह और शेख कमाल खाना बनाने में मशगूल थे I मुहम्मद वहाँ झांककर कर लौट आया i तभी उसे दूसरे खानकाह से बड़े पीर की बुलंद आवाज आती सुनायी दी I वह धीरे से वहाँ प्रविष्ट हुआ और पीछे जाकर घुटनों के बल बैठ गया I
अशरफ जहांगीर ने जैसे ही अपना वक्तव्य समाप्त किया I मुहम्मद उठ खड़ा हुआ I
‘पीर बाबा, मुहब्बत किसे कहते हैं ?’ –उसने भोलेपन से पूछा I‘
जहाँगीर चिश्ती के माथे पर बल पड़ गए I यह तो बाकमाल सवाल है और इस पिद्दी से बच्चे ने पूछा I‘
‘शाबाश बच्चे !’ पीर ने गद्गद होकर कहा I - ‘तो सुनो बेटे ---और आप सब भी सुनें ‘ – पीर ने शागिर्दों की ओर इशारा करते हुए कहा - मुहब्बत एक अहसास है I यह अनेक जज्बों और रवैयों का मिश्रण है, जो शिद्दते दिल से महसूस किया जाता है I यह एक मज़बूत खिंचाव है, जो शब्दों में बयां नहीं हो सकता I हम अपनी मेहर, अपनी चाहत, अपना ख़ुलूस बजरिये मुहब्बत जाहिर करते हैं I अपनी माशूका के लिये अक्सर आदमी के दिल में ऐसी तड़प पैदा होती है कि बिना उसके दीदार के उसे किसी सूरत चैन नहीं मिलता I वैसी ही तड़प जब अल्लाह के लिए हमारे मन में पैदा हो जाए तो वही सच्चा तसव्वुफ़ है I वही सूफियत यकीनी है I सूफी अल्लाह के विछोह में दिन-रात तड़पता है I वह अपने महबूब खुदा के लिए मौत तक को गले लगाने के लिये बावला रहता है I ’
इतना कहकर पीर बाबा चुप हो गए I उन्होंने एक अंगौछे से अपना चेहरा साफ़ किया I लोटे से थोड़ा जल पिया I फिर चेलों की और देखकर बोले – ‘देखो बच्चों अभी तुम यह जो इल्म ले रहे हो, फ़कत जबानी है I इसमें खुद को ढालना भी होगा I मगर यह जानकारी भी उतनी ही जरूरी है I कल मैं शरीयत, तरीकत, मारिफत और हकीकत के बारे में कुछ बताऊंगा I शुरुआत मैं मोमिन बनने ----‘ कहते-कहते पीर बाबा अचानक चुप हो गए I उन्होंने अचानक आँखे बंद कर ली I कुछ देर तक होठों में बुदबुदाते रहे मानो किसी से बात कर रहे हों, फिर उन्होंने उसी मुद्रा में पुकार कर कहा–‘ मुहम्मद बेटा, अभी के अभी अपने घर जाओ I तुम्हारे अब्बू की तबीयत अचानक खराब हो गयी है I ’
(मौलिक / अप्रकाशित )
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Comment
आ० धामी जी . सादर आभार . प्रकाशित होते ही सूचित करूंगा .
आ. भाई गोपाल नारायण जी, सादर अभिवादन । उपन्यास का अंश रोचक है । हार्दिक बधाई । प्रकाशन पर सूचित करें जिससे उसे सम्पूर्णता में पढ़ सकू ।
मेरी बधाई,और शुभकामनाएं ।
आदरणीय समर कबीर साहिब , उपन्यास पूरा हो चूका है i प्रूफ फिर से ठीक कर रहा हूँ फिर प्रकाशन में जायेगी i आपको प्रति जरूर भजूंगा i सादर i
जनाब डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आदाब,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें,उपन्यास का बेचैनी से इन्तिज़ार है ।
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