भिखारी सोचता रहा. आधी रात लगभग बीत चुकी थी . लेकिन उसकी आँखों में नींद कहाँ ? पिछले एक सप्ताह से वह ज्वर में तप रहा था. इस अवधि में गरमागरम चाय और नमकीन बिस्किट की कौन कहे, उसे ढंग की दवा तक नसीब नहीं हुयी . वह तो भला हो उस ‘लंगड़े’ का जो किसी तरह ‘अजूबी’ की कुछ टिकिया ले आया था. पर उससे क्या ? आज तो भिखारी के शरीर में इतनी भी ताब न थी कि वह घड़े में रखे कई दिनों के बासी और सड़े–गले पानी को मिट्टी के प्याले में ढालकर अपनी प्यास बुझा पाता . उसने पथराई आँखों से अँधेरी झोंपड़ी में चारों ओर देखा . सब ओर एक उदास और मायूस खामोशी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था . फूस की दीवारें उसे भूतों की काली छाया के समान डरावनी जान पड़ीं . उसने किसी अज्ञात भय से अपनी आँखें बंद कर लीं . विचारों का एक अंधड़ उसके मन में द्वंद्व मचाने लगा . उसे याद आया जब वह छोटा था . नदी के किनारे नंग-धडंग दौड़ा करता था . नदी के छिछले पानी में वंशी डालकर मछली फँसने का इन्तजार करना, कितना मनहूस काम था . लेकिन एक बार जब मछली फँस जाती, तब उसे पानी से बाहर खींचकर कांटे से निकालना कितना आनन्ददायक लगता था . रूपहली रेत में मछली का उछलना-मचलना और कदाचित उसे तडपते देखना कितना दिलचस्प होता था . तब यह लगता मानो चाँदी सी चमकीली कोई नन्हीं परी बालू के मंच पर नाच-नाच कर उसे रिझा रही है. तब उसे यह नहीं पता था कि वह सारा तिलिस्म मछली की प्राणान्तक वेदना थी . भिखारी को लगा कि आज उसकी स्थिति भी ऊन्हीं मछलियों की तरह है i निष्ठुर काल ने अपनी वंशी में उसे बुरी तरह फँसा लिया है और वह खटिया रूपी रेत के मैदान में निजात पाने के लिए तड़प रहा है . भिखारी ने भूख और प्यास की शिद्दत से अपने जबड़े कस लिए . पीड़ा की एक दबी हुयी सीत्कार उसके होंठों से निकली . उसकी आँखों के सामने अब जवानी का चित्र घूम गया . गाँव के हरे-भरे खेतों में धान के बिरवे रोपती हुयी उसे उस साँवली लडकी की याद आयी, जिसने तब उसके जीवन में एक हलचल सी मचा दी थी. किस तरह भिखारी का पक्ष लेकर उसने सारी पंचायत के सामने उसकी हिमायत की थी . इतना ही नहीं उसके लिए उस नाजुक सी दिखने वाली लड़की ने अनेक अपमान और यातना की पीड़ायें सहकर अपना गाँव हमेशा के लिए छोड़ दिया था . उन दिनों उसके शरीर में कितना दम था . पूरे जंवार की लड़कियाँ उसका कसरती बदन देखकर रश्क करती थीं . उन दिनों जूड़ी-बुखार का वह नाम तक न जानता था . भूख भी उसकी हिम्मत तोड़ने का साहस न कर पाती थी . वह एक दो नहीं पूरे चार-चार दिनों तक बिना कुछ खाए भरपूर मेहनत कर सकता था . लेकिन आज ----. भिखारी के होंठ से घुटी-घुटी चीख निकल पड़ी . प्यास की शिद्दत से उसने अपने होठों पर जुबान फेरी . भूख और प्यास . उस पर यह ज्वर . भिखारी का सिर चकराने लगा . बुढ़ापा भी क्या अजीब अलामत है ? इस अवस्था में अपने सगे भी बेगाने हो जाते हैं . भिखारी को अचानक उस ‘दरिद्र’ की याद आयी , जिसकी मौत एक सप्ताह पहले ही हुयी थी . ‘दरिद्र’ ने भिखारी को बताया था कि इस साल पूस का महीना उसके लिये बिलकुल मल्कुल-मौत ही बनकर आया था. रात को इस कदर हाड़ कँपाने वाली सर्दी पड़ती थी कि दाँतों से अपने आप सरगम फूट पड़ता था. उसी ने कहा था कि एक रात जानलेवा सर्दी से बचने के लिए वह एक कुत्ते के पिल्ले को अपने कलेजे में समेट कर सो गया था . पिल्ले के शरीर की गर्माहट के बावजूद वह शीत की अधिकता के कारण चैन से सो नहीं पाया था . इस घटना के दो दिन बाद ही ‘दरिद्र‘ की मौत हो गयी थी . देखने वालों का कहना था कि उसका सारा शरीर किसी सूखी लकड़ी की भाँति ऐंठ गया था . उसकी लाश उठाने वालों को उसका शरीर बर्फ की मानिंद ठंडा लगा था . भिखारी ने खटिया पर पड़े-पड़े करवट बदली . उसकी आँखों के सामने लाल –पीले तारे चमक उठे . उसे लगा कि ‘दरिद्र’ की भाँति ही उसके दिन भी पूरे हो चुके हैं . उसने महसूस किया कि उसके प्राण कंठ में आकर अटक गए हैं और किसी भी समय वह शरीर का साथ छोड़कर जा सकते है . भूख और प्यास दोनों अब उसकी सहन शक्ति की सीमा को पार कर चुके थे . किंतु आशा और जिजीविषा, इन्हीं के सहारे उसकी साँस अटकी हुयी थी . भिखारी ने झोपडी के द्वार की ओर बड़ी हसरत से देखा .उसे विश्वास था कि कुछ ही देर बाद सवेरा होगा और ‘लंगड़ा’ उसकी झोपड़ी पर आकर अपनी बैसाखी खटखटायेगा . तब वह उसका एकमात्र पैर पकड़कर उससे एक कप चाय और डबलरोटी मंगवायेगा . लेकिन पैसे ----? अरे, पैसे का हिसाब तो बाद में भी हो जाएगा . सारी उमर तो हमें इस खटिया पर ही पड़े नहीं रहना है i कभी तो बुखार उतरेगा . कुछ ही दिनों में जिस्म में फिर से जान आ जायेगी . तब क्या फिर भीख मांगे न मिलेगी . मंत्री जी ने तो कहा था ------- अचानक उसकी सोच एक नयी दिशा की ओर मुड़ गयी . उसे राजनीतिक पार्टियों द्वारा आयोजित की जाने वाली रैलियों की याद आयी . उसे लगा अभी ‘लंगड़ा’ आकर उसे झिंझोड़कर जगायेगा और कहेगा, भिखारी भाई, कल से तुम्हें भीख मांगने की जरूरत नहीं है . मैंने सारा बंदोबस्त कर लिया है . कल हम बस से राजधानी चलेंगे . सुना है वहां बड़ा हंगामा होगा . रैली होगी. बड़े –बड़े नेता आयेंगे . खूब भाषण होंगे और यह भी मालूम हुआ है कि हम गरीबों तथा अपाहिजों के लिए सरकार के दिमाग में कई योजनायें हैं . इन सारी बातों का वहीं चलकर पता चलेगा . मुख्यमंत्री जी ने वादा किया है कि अब कोई गरीब नहीं रहेगा . कोई भूखा नहीं रहेगा . किसी को भीख मांगने की जरूरत नहीं पड़ेगी और इतना ही नहीं , मुफ्त में बस की सैर करने को मिलेगी तथा पांच सौ रुपये भी फ़ोकट में बख्शीश भी--- दूर कहीं लाउडस्पीकर की घरघराहट हुयी . भिखारी की विचार शृंखला टूट गयी . सवेरा होने ही वाला था. उसके मन में खटिया से उठकर झोपड़ी के बाहर प्रभात का नजारा देखने का लोभ जागा . लेकिन कमजोरी और दर्द के मारे उससे उठा नहीं गया . वह कुछ देर यूँ ही पड़ा-पड़ा लम्बी साँसे लेता रहा . पर आशा और जिजीविषा भी बड़ी अजीबोगरीब चीज है . उसका मन नहीं माना . उसने अपने सारे शरीर की ताकत लगाकर उठने का एक जोरदार प्रयास किया . किसी प्रकार अपनी काँपती टाँगों पर उसने अपने शरीर को पल भर के लिए स्थिर किया . दूसरे ही पल कटे वृक्ष की भाँति लहराकर वह जमीन पर गिर पड़ा . मिट्टी का घड़ा उसके शरीर के आघात से एक जोरदार आवाज के साथ टूट गया . ‘फाटक ---‘ की एक तीखी आवाज उस सन्नाटे में गूँज उठी . फिर धीरे-धीरे सब कुछ शांत हो गया . भिखारी की भावशून्य आँखें उबलकर बाहर आ गयीं . उसका सारा शरीर अकड़कर निश्चेष्ट हो गया . लाउड स्पीकर की आवाज अचानक तेज हो गयी .
उसका मधुर संगीत उस स्तब्ध वातावरण में गूँज रहा था और आवाज उभरकर आ रही थी –‘सारे जहाँ से अच्छा , हिन्दोस्ताँ हमारा ------‘
(अप्रकाशित / मौलिक )
Comment
बहुत ज़बरदस्त लघुकथा लिखी है आदरणीय डॉक्टर श्रीवास्तव जी। बहुत करारा व्यंग्य है।
आ० समर कबीर साहेब. बहुत बहुत शुक्रिया .
आ० शेख शहजाद उस्मानी साहब , आपका हार्दिक आभार
जनाब डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आदाब,बहुत उम्दा,तंज़ आमेज़,कहानी लिखी है आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
कुछ लघुकथाएं समेटे हुए भी है। आशा है आप इस रचना में से दो-चार तीखी/मारक लघुकथाएं भी कहना चाहेंगे।
आदाब। बेहतरीन मार्मिक, कटाक्षपूर्ण, यथार्थपूर्ण चेतना देता विचारोत्तेजक सृजन। हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव साहिब। भिखारी/ दिलेर जागृत लड़की /लंगड़ा और ढोंगी/कपटी राजनीति/राजनेताओं के साथ कटाक्षपूर्ण शीर्षक वाले तराने के चित्रण के साथ बेहतरीन प्रवाहमय रचना पाठक को झकझोरते हुए, भिखारी के जीने-मरने की संभावित परिणति के बीच आशा और जिजीविषा से दो-चार कराती हुई कहानी के गुणधर्म समेटे बेहतरीन क्लाइमेक्स पर पाठक को पहुंचाकर यथार्थपूर्ण समापन पर पहुंचाकर बेहतरीन व्यंगात्मक पंक्तियों के साथ विचार-मंथन पर छोड़ती है। सादर हार्दिक आभार समसामयिक अत्यावश्यक सम्प्रेषण हेतु।
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