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हुआ अब तक नहीं है हुस्न का दीदार जाने क्यों ।
बना रक्खी है उसने बीच मे दीवार जाने क्यों ।।
मुहब्बत थी या फिर मजबूरियों में कुछ जरूरत थी ।
बुलाता ही रहा कोई मुझे सौ बार जाने क्यों ।।
यहाँ तो इश्क बिकता है यहां दौलत से है मतलब ।
समझ पाए नहीं हम भी नया बाज़ार जाने क्यों ।।
तिजारत रोज होती है किसी के जिस्म की देखो ।
कोई करने लगा है आजकल व्यापार जाने क्यों ।।
कोई दहशत है या फिर वो कलम को बेचकर बैठे ।
बहुत ख़ामोश होते जा रहे अख़बार जाने क्यों ।।
हर इक इंसान में नफरत सियासत बो गयी शायद ।
जलेगा मुल्क मुद्दत तक लगा आसार जाने क्यों ।।
वो पढ़ लिख कर निवाले के लिए मोहताज़ है साहब ।
यहां सुनती नहीं कुछ बात को सरकार जाने क्यों ।।
बड़ी उम्मीद थी वो मुल्क़ की सूरत बदल देंगे ।
लगे हैं लोभ के आगे वही लाचार जाने क्यों ।।
तरक्की हो चुकी है मान लेता हूँ मगर साहब ।
यहां रोटी पे होती है बहुत तक़रार जाने क्यों ।।
बगावत कर चुके है जब रहेंगे हम सदा बागी ।
फरेबी दे रहे अब झूठ का उपहार जाने क्यों ।।
वो चिड़िया उड़ गई जब आपको अपना समझते थे ।
जमाते आप मुझपर हैं कोई अधिकार जाने क्यों ।।
मौलिक
अप्रकाशित
Comment
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी प्रणाम ,बहुत सुन्दर गजल। ढेरों दाद कुबूल करें। सादर
हार्दिक बधाई आदरणीय नवीन मणि जी। बेहतरीन गज़ल।
कोई दहशत है या फिर वो कलम को बेचकर बैठे ।
बहुत ख़ामोश होते जा रहे अख़बार जाने क्यों ।।
बड़ी उम्मीद थी वो मुल्क़ की सूरत बदल देंगे ।
लगे हैं लोभ के आगे वही लाचार जाने क्यों ।।
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