ग़ज़ल
इक ठिकाना तलाशता हूँ मैं ।
टूटा पत्ता दरख़्त का हूँ मैं ।।
कुछ तो मुझको पढा करो यारो ।
वक्त का एक फ़लसफ़ा हूँ मैं ।।
हैसियत पूछते हैं क्यूं साहब ।
बेख़ुदी में बहुत लुटा हूँ मैं ।।
इश्क़ की बात आप मत करिए ।
रफ़्ता रफ़्ता सँभल चुका हूँ मैं ।।
चाँद इक दिन उतर के आएगा ।
एक मुद्दत से जागता हूँ मैं ।।
खेलिए मुझसे पर सँभल के जरा।
इक खिलौना सा काँच का हूँ मैं ।।
रूठ जाती है बेसबब किस्मत ।
यह ज़माने से देखता हूँ मैं ।।
वो लगाते हैं आग शिद्दत से ।
देखिए अब तलक जला हूँ मैं ।।
ऐ मुसाफ़िर जरा मेरी भी सुन ।
काम आए वो तज्रिबा हूँ मैं ।।
रह गया उम्र भर जो अनसुलझा।
जिंदगी तेरा मसअला हूँ मैं ।।
इतना आसां नहीं मुकर जाना ।
आपका ही तो सिलसिला हूँ मैं ।।
मौलिक अप्रकाशित
--नवीन मणि त्रिपाठी
Comment
आ0 राज नावादवी साहब ग़ज़ल तक आने के लिए तहेदिल से शुक्रियः।
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी, सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए दाद के साथ मुबारकबाद. सादर.
आ0 शेख शहज़ाद उष्मानी साहब तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया ।
दिलचस्प शैली व काफ़ियों के साथ सब कुछ कह दिया आपने। बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी साहिब।
बहुत खूब
बहुत खूब
आ0 तेजवीर सिंह साहब हार्दिक आभार ।
आ0 कबीर सर सादर नमन के साथ तहेदिल से शुक्रियः।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय नवीन मणि जी। बेहतरीन गज़ल।
रह गया उम्र भर जो अनसुलझा।
जिंदगी तेरा मसअला हूँ मैं ।।
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