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खतों का चल रहा जो सिलसिला है ।
मेरी उल्फ़त की शायद इब्तिदा है ।।
यहाँ खामोशियों में शोर जिंदा ।
गमे इज़हार पर पहरा लगा है ।।
छुपा बैठे वो दिल की आग कैसे।
धुंआ घर से जहाँ शब भर उठा है ।।
नही समझा तुझे ऐ जिंदगी मैं ।
तू कोई जश्न है या हादसा है ।।
मिला है बावफा वह शख़्स मुझको ।
कहा जिसको गया था बेवफा है ।।
ज़माने को दिखी है ख़ासियत कुछ ।
तुम्हारे हुस्न पर चर्चा हुआ है ।।
मुआफ़ी तो खुदा ही देगा उनको ।
हमारा दिल कहाँ इतना बड़ा है ।।
ज़रूरत पर मिलेंगे हँस के वरना ।
यहां हर शख्स का लहज़ा बुरा है ।।
अजब मजबूरियाँ हैं पेट की भी ।
तभी तो आदमी इतना गिरा है ।।
वहाँ कुछ सोच कर सच बोलना तुम ।
जहाँ तोड़ा गया वह आइना है ।।
उठाओ उँगलियाँ मत दुश्मनों पर ।
मेरा क़ातिल तो मेरा रहनुमा है ।।
यूँ देकर ज़ख़्म फिर ये मुस्कुराना ।
तुम्हारे जुल्म की ये इंतहा है ।।
नवीन मणि त्रिपाठी-- मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, सुन्दर ग़ज़ल की पेशकश पे दिली मुबारकबाद. सादर.
आ0 सर सादर नमन ।
आपकी टिप्पणी पढ़ कर ही आभार व्यक्त किया । उसके बाद आपकी टिप्पणी ढूढ़ता रह गया मिली नहीं । तो मैंने समझा कि शायद आप कुछ ज्यादा इस्लाह देना चाहते होंगे इसलिए आपने टिप्पणी मिटा दी है । मेरी तरफ से टिप्पणी से कोई छेड़ छाड़ सम्भव ही नहीं है ।
मेरी टिप्पणी कहाँ गई भाई?
आदरणीय कबीर सर सादर नमन । पूर्णतया आपसे सहमत हूँ । ठीक करता हूँ सर ।
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