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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७४

२१२२ ११२२ ११२२ २२/ १२२

मैं हूँ साजिद, मेरा मस्जूद मगर जाने ना
घर में साकिन हैं कई, सबको तो घर जाने ना //१

ख़ुद ही पोशीदा है तू ख़ल्क़ में तो क्या शिकवा
कोई क्या आए तेरे दर पे अगर जाने ना //२

दोनों टकराती हैं हर रोज़ सरे बामे उफ़ुक़
मोजिज़ा है कि कभी शब को सहर जाने ना //३

ये अलग बात है तू मुझपे नज़र फ़रमा नहीं
वरना क्या बात है जो तेरी नज़र जाने ना //४

तू मुदावा है मेरे गम का तुझे क्या मालूम
बात यूँ है कि दवा अपना असर जाने ना //५

चर्खे उल्फ़त में कोई मील का पत्थर तो नहीं
ख़ुद की परवाज़ की ऊँचाई को पर जाने ना //६

जीतना है तेरी फ़ित्रत तो चलो देखेंगे
हारना इश्क़ में तो मेरा जिगर जाने ना //७

'राज़' हम क्यों रखें पुरसिश की तवक़्क़ो उससे
हाल क्या पूछे वो जब वज्हे ज़रर जाने ना //८

~ राज़ नवादवी

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

साजिद- सज्दा करने वाला; मसजूद-जिसे सज्दा किया गया हो; साकिन- घर कानिवासी; पोशीदा- गुप्त; ख़ल्क़- सृष्टि; सरे बामे उफ़ुक़- क्षितिज के छज्जे पर; मोजिज़ा-जादू; चर्खे उल्फ़त- प्रेम का आकाश; पुरसिश- पूछ ताछ; तवक़्क़ो- उम्मीद; वज्हे ज़रर- चोट का कारण

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Comment by Samar kabeer on November 26, 2018 at 3:07pm

जनाब राज़ नवादवी साहिब आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

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