ग़ज़ल
गण हुए तंत्र के हाथ कठपुतलियाँ
अब सुने कौन गणतंत्र की सिसकियाँ
इसलिए आज दुर्दिन पड़ा देखना
हम रहे करते बस गल्तियाँ गल्तियाँ
चील चिड़ियाँ सभी खत्म होने लगीं
बस रही हर जगह बस्तियाँ बस्तियाँ
पशु पक्षी जितने थे, उतने वाहन हुए
भावना खत्म करती हैं तकनीकियाँ.
कम दिनों के लिए होते हैं वलवले
शांत हो जाएंगी कल यही आँधियाँ
अब न इंसानियत की हवा लग रही
इस तरफ आजकल बंद हैं खिड़कियाँ
क्रोध की आग है आग से भी बुरी
फूँक दो आग में मन की सब तल्ख़ियाँ.
इक नज़र खुश्क मौसम पे जो डाल दो
बोलना सीख जायेंगी खामोशियाँ.
रास्ता अपने जाने का रखने लगीं
आजकल घर बनाती हैं जब लड़कियाँ.
प्रश्न यह पूछना आसमाँ से "सुजान"
निर्धनों पर ही क्यों गिरती हैं बिजलियाँ .
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदाब। पूरी तरह सहमत और चिंतन में सहभागी । ताक़ीद, हिदायत, समझाइश, जन-जागरूकता से परिपूर्ण बेहतरीन ग़ज़ल हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय सूबे सिंह सुजान साहिब।
लक्ष्मण जी,आपने ग़ज़ल को पढ़कर हौसला अफ़जाई की बहुत बहुत शुक्रिया जनाब
आ. भाई सूबेसिंह जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
प्रकाशित करने के लिए आभार
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