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क़ज़ा का करके मेरी इंतिज़ाम उतरी है ।
अभी अभी जो मेरे घर मे शाम उतरी है ।।
तमाम उम्र का ले तामझाम उतरी है ।
ये जीस्त मौत को करने सलाम उतरी है ।।
अदाएं देख के उसकी ये लग रहा है मुझे ।
कि लेने हूर कोई इंतिकाम उतरी है ।।
वो शाम होते ही जायेगा मैकदे में फिर ।
शराब उसको बनाकर गुलाम उतरी है ।।
मरेंगे आज यहां बेगुनाह फिर देखो ।
सड़क पे ले के सियासत अवाम उतरी है ।।
सियाह शब में उजालों की पैठ फिर होगी ।
किरन ये चाँद का लेकर पयाम उतरी है ।।
बिखेर दी है फिजाओं में फिर नई ख़ुश्बू ।
हवा जो आज लिए अहतराम उतरी है।।
ख़बर मुझको है तेरे इश्क़ की बलन्दी से ।
जवानी हो के बहुत बेलगााम उतरी है ।।
सुना रहा हूँ ज़माने को आज फिर से मैं ।
जो याद जेहन में लेकर कलाम उतरी है ।।
वो बेवफा से मुहब्बत न छोड़ पायेगा ।
कि जिसके वास्ते इज्ज़त तमाम उतरी है ।।
जो उड़ रही थी तस्व्वुर में एक मुद्दत से ।
जमीं पे नींद वो करने हराम उतरी है ।।
मौलिक अप्रकाशित
डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
Comment
आ0 आमोद श्रीवास्तव जी हार्दिक आभार
आ0 कबीर सर सादर नमन
ख़बर है मुझको तेरे इश्क़ की बुलन्दी से
मिसरे को ऐसा कर रहा हूँ
जनाब डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
'ख़बर मुझको है तेरे इश्क़ की बलन्दी से'
इस मिसरे की बह्र चेक करें ।
आ रचना के लिए बधाई ...
ये...सड़क पे लेके सियासत अवाम उतरी है " बहुत खूब
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