"न बाबा, तुम भले इसे बस्ता या स्कूल-बैग कह लो; लेकिन मेरी नज़र में यह बालक के कंधे पर समय का बोझ है! समय-चक्र की मार!" सड़क पर स्कूल से घर लौटते एक बालक के बोझिल झुके कंधे देखकर मिर्ज़ा जी ने अपने दोस्त राजवीर मासाब से कहा।
"भाईजान, समय के साथ हमें और विद्यार्थियों को चलना ही पड़ेगा। हमारे, उनके और मुल्क के हालात अपनी जगह और ज़माने के साथ हमारी लय-ताल अपनी जगह!"
"हा हा हा.. लय-ताल! ... या पाठ्यक्रमों का सुनियोजित बवाल! नई आयातित शिक्षण-पद्धतियों के सागर या सुर-ताल। न तैराक शिक्षक-प्रशिक्षक हैं, और न ही नाव-पतवार! बच्चे हर साल बेहाल!" मिर्ज़ा जी ने अपने दोस्त से यह कहते हुए अधिकतर विद्यार्थियों, शिक्षकों और स्कूलों के चोंचलों की मिसालें दीं।
"तुम्हारा मतलब, विद्यार्थी सिर्फ़ कृत्रिम चमकते मोतियों के हार; व्यापार के औज़ार! न संस्कृति, न संस्कार! ढोंगी नीतियां और और स्वार्थी सोच-विचार! है न!" राजवीर मासाब की इस बात पर मिर्ज़ा जी बोले, "विदेशी आंधी-तूफ़ान हैं या होड़-दौड़ और तकनीकी- सुनामी, बस! बच्चों को नैया पार करानी है और करिअर का बेड़ा-पार!"
वे दोनों यूं गुफ़्तगु कर रहे थे और थका-हारा बालक अपना बस्ता लादे सड़क के गड्ढों को पार कर अपने घर की ओर चलता जा रहा था, ज़िन्दगी के अग्निपथ का अनुभव सा करता।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
रचना पर समय देकर राय साझा करने और हौसला अफ़ज़ाई हेतु बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीया बबीता गुप्ता साहिबा।
किताबी कीङा बन रहे आज के बच्चे, कटाक्ष करती बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय शेख सरजी।
आदाब। बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब।
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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