आल्हा छंद (16, 15 अंत में गुरु लघु)
लोकतंत्र के महापर्व में, हुए सभी नेता तैयार
शब्द बाण से वार करें वे, छोड़ छाड़ के शिष्टाचार।।
युध्द भूमि सा लगता भारत, जहाँ मचा है हाहाकार
येन केन पाने को सत्ता, अपशब्दों की हो बौछार।।
खून करें वे लोकतंत्र का, जुमले हैं इनके हथियार
हित जनता का भूल गए वे, ऐसा इनका है आचार
हे जन मन तुम जाग उठो अब, व्यर्थ न जाये यह त्योहार
ऐसा कुछ इस बार करो तुम, राजनीति बदले आकार ।।
रंग बराबर बदलें ऐसे, गिरगिट भी ना पाये पार
चाल जरा देखो इनकी अब, हिरनी भी जाये यूँ हार
नाम नहीं बस नेता इनका, इनके आगे सब बेकार
बहुत कमाए काली पूँजी, काला इनका सब व्यापार।।
शब्द कहें जो जनता हित में, नही करो उसपे इतबार
मानवता का करते हत्या, मानव से खाते हैं खार
लालच मन में इतना बैठा, भूले राजनीति का सार
करो भरोसा इन पर ना तुम, ये नैया हैं बिन पतवार।।
वादों की बौछार करें बस, कहें देश को दूँगा तार
एक बार फिर मुझें बना दो, आप सभी मेरी सरकार,
लेकिन द्विज मन नहीं मानता, भरता है अपनी हुंकार
देश बचाने को कहता है, कलम उठाऊंगा हर बार।।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आ. विवेक जी, चुनावी माहौल में सुंदर आल्हा छंद हुए है । हार्दिक बधाई।
जनाब विवेक पाण्डेय जी आदाब,बहुत अच्छे छन्द लिखे आपने,बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह ' कुशक्षत्रप' जी उत्साह वर्धन हेतु साधुवाद।
आद0 विवेक पांडेय द्विज जी सादर अभिवादन। आल्हा छंद में बढ़िया लिखा है आपने वर्तमान परिदृश्य पर। इस समसामयिक रचना पर आपको कोटिश बधाइयां
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