बहुमुखी प्रतिभाओं के धनी तीन रंगमंचीय कलाकार थिएटर में फुरसत में मज़ाकिया मूड में बैठे हुए थे।
"तुम दोनों धृतराष्ट्र की तरह स्वयं को अंधा मानकर अपनी आंखों में ये चौड़ी और मोटी काली पट्टियां बांध लो!" उनमें से एक ने शेष दो साथियों से कहा, "पहला अंधा सुबुद्धि और दूसरा अंधा कुबुद्धि कहलायेगा! ... ठीक है!"
दोनों ने अपनी आंखों में पट्टियां सख़्ती से बंधवाने के बाद उससे पूछा, " ... और तुम क्या बनोगे, ऐं?"
"मैं! .. मैं बनूंगा तुम्हारी और आम लोगों की 'दृष्टि'! देखते हैं हम तीनों को क्या-क्या दिखाई देता है!"
"क्या मतलब?" सुबुद्धि ने कुबुद्धि का कंधा हिला कर कहा।
"चलो आज यही खेलते हैं!" कुबुद्धि ने उसका हाथ दबा कर कहा।
"तो शुरू करते हैं अपनी लघु-नाटिका!" तीसरे यानि 'दृष्टि' ने अपने दोनों हाथ सीने पर बांधकर कहा, "तो तुम दोनों अपनी अंतर्दृष्टि से अपने देश के ताज़े परिदृश्य को देख-समझ कर कोई लघु-टिप्पणी करो बारी-बारी से!"
कुछ ही पलों में सुबुद्धि ने बताया, "मुझे कुख्यात आतंकी दल और तमाम लुटेरे-भगोड़े आत्मसमर्पण कर देश-भक्त-रक्षक बनते दिख रहे हैं और हमारा विकसित देश दुनिया का नेतृत्व करता दिख रहा है!"
"जय हो! ... और कुबुद्धि तुम्हें क्या दिख रहा है?" दृष्टि ने पूछा।
"मुझे शांतिप्रिय श्वेत वस्त्रधारी अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्रधारी साधु-साध्वियां, बाबा-बुरकेवालियां अपने देश पर शासन करती दिख रहीं हैं भाई!" कुबुद्धि ने अपनी कुर्सी पर डमरू सी ताल बजाते हुए कहा।
"जय हो!" दृष्टि ने अपने दोनों नेत्र फाड़कर कहा।
"अब तुम बताओ, तुम्हारी असली दृष्टि क्या देख रही है?" दोनों पट्टीधारियों ने एक साथ पूछा।
"अंधे बंधुओ! मैं देख रहा हूंँ कि अपने देश के अधिकतर लोगों के अनमोल ज़मीर और रिश्ते बिक चुके हैं! स्वार्थ और पदलोलुपता अस्त्र-शस्त्र युक्त व यंत्र-तंत्र-मंत्र युक्त हो गई है!" दृष्टि ने सुबुद्धि और कुबुद्धि दोनों के कंधे सहलाते हुए कहा, "लोगों में अंधापन, नंगापन और अंधानुकरण इतना बढ़ रहा है कि धनलोलुपता और दुनियावी चकाचौंध के संग देश में उन्हीं का प्रभुत्व और नेतृत्व है बंधुओं!"
" ... और लोगों की बुद्धियां?" दोनों पट्टीधारियों ने अपनी आंखों से पट्टियां झटके से हटाकर पूछा।
"बुद्धियां ही तो भ्रष्ट-पथभ्रष्ट हो गईं हैं न! ... जो स्वयं को बुद्धिजीवी मानते हैं या कहलाते हैं उनकी चेष्टाएँ-कुचेष्टाएँ आपस में द्वंद्वयुद्ध कर रही हैं!" दृष्टि ने पुनः अपनी आंखें फाड़कर कहा।
"तो ये कहो न कि हर देशवासी में 'सत्य, रज और तम' - इन त्रिगुणों में द्वंद्व और प्रतिद्वंद्व चरम पर है!" सुबुद्धि बने रंगकर्मी ने अपने दोनों साथियों के कंधे सहलाते हुए कहा।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी साहब जी।बेहतरीन लघुकथा।
आद0 शेख शहज़ाद उस्मानी साहब सादर अभिवादन, वाह वाह वाह वाह, बहुत बढिया लघुकथा लिखी आपने , आपको इस प्रस्तुति पर बधाई। सादर
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