स्थानीय पार्क में शाम की चहल-पहल। सभी उम्र के सभी वर्गो के लोग अपनी-अपनी रुचि और सामर्थ्य की गतिविधियों में संलग्न। मंदिर वाले पीपल के पेड़ के नीचे के चबूतरे पर अशासकीय शिक्षकों का वार्तालाप :
"हम टीचर्ज़ तो कोल्हू के बैल हैं! मज़दूर हैं! यहां आकर थोड़ा सा चैन मिल जाता है, बस!" उनमें से एक ने कहा।
"महीने में हमसे ज़्यादा तो ये अनपढ़ मज़दूर कमा लेते हैं! अपन तो इनसे भी गये गुजरे हैं!" दूसरे ने मंदिर के पास पोटली खोलकर भोजन करते कुछ श्रमिकों को देख कर कहा।
उन दोनों को कोल्ड-ड्रिंक्स से अपने गले तर करते देख कर उन मज़दूरों में वार्तालाप शुरू हुआ :
"इन पढ़े-लिखों से अपन बेहतर! हम किसी के ग़ुलाम नहीं! ख़ुद ही राजा, ख़ुद ही रंक! दाल-रोटी खाओ; प्रभु के गुण गाओ!" उन श्रमिकों में से एक ने मंदिर के मटके से पानी लेकर गला तर करते हुए कहा।
"नीयत, मेहनत, ख़ुराक और हाज़मे की बात है भाई! उन लोगों के कुछ ... और हम लोगों के कुछ और! ... इस पार्क की तरह सदाबहार हैं हम; उन जैसे मुरझाए, बेचैन नहीं!" दूसरे ने उन शिक्षकों की ओर देख कर कहा।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आद0शेख शहज़ाद उस्मानी साहब सादर अभिवादन। बहुत अच्छी लघुकथा लिखी आपने, बधाई स्वीकार कीजिये
आदरणीया शेख़ उस्मानी साहिब,आदाब ... बहुत ही उम्दा और प्रभावी लघु कथा का सृजन हुआ है। दिल से बधाई।
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।
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