ढलते पहर में लम्बाती परछाईयाँ
स्नेह की धूप-तपी राहों से लौट आती
मिलन के आँसुओं से मुखरित
बेचैन असामान्य स्मृतियाँ
ढलता सूरज भी तब
रुक जाता है पल भर
बींध-बींध जाती है ऐसे में सीने में
तुम्हारी दुख-भरी भर्राई आवाज़
कहती थी ...
"इस अंतिम उदास
असाध्य संध्या को
तुम स्वीकारो, मेरे प्यार"
पर मुझसे यह हो न सका
अधटूटे ग़मगीन सपने से जगा
मैं पुरानी सूनी पटरी पर खड़ा
घबराया
कर रहा हूँ तब से बेमाप अकेले में
कभी न आने वाली
पहचानी ट्रेन का इन्तज़ार
--------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आपने रचना को मान दिया, आपका हार्दिक आभार, आदरणीय नरेन्द्रसिहं जी।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय गिरिराज जी।
बहुत खूब विजय जी , कविता के लिए हार्दिक बधाईयाँ
बहुत खूब आदरनीय बड़े भाई विजय जी , कविता के लिए आपको हार्दिक बधाईयाँ |
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online