ऑफिस से बाहर निकलते ही उसका सर चकरा गया, गजब की लू चल रही थी. अब तपिश चाहे जितनी भी हो, काम के लिए तो बाहर निकलना ही पड़ता है. फोन में समय देखा तो दोपहर के ३.३० बज रहे थे. इस शहर में वह कम ही आना चाहता है, दरअसल मुंबई जैसे शहर में नौकरी करने के बाद ऐसे छोटे शहरों और कस्बों में उसे कुछ खास फ़र्क़ नजर नहीं आता.
सुबह आते समय तो ठीक था, लेकिन अभी उसे जाने के नाम पर ही बुखार चढ़ने लगा. स्टेशन से इस ऑफिस की दूरी बमुश्किल ३० मिनट की ही थी. लेकिन न तो यहाँ कैब थी और न ही किसी ऑटो के दर्शन हो रहे थे. अब इस धूप में वापस स्टेशन रिक्शे से जाना पड़ेगा, ट्रेन का टाइम भी हो रहा था. बाहर एक रिक्शा खड़ा था लेकिन रिक्शावाला नदारद था. उसने अहाते से ही "रिक्शा, रिक्शा" आवाज लगायी लेकिन कोई दिखाई नहीं दिया. मजबूरन उसे बाहर निकलना पड़ा, लू का थपेड़ा उसके चेहरे को जला गया. जैसे ही वह रिक्शे के पास पहुंचा, एक बुजुर्ग गमछे से चेहरा पोंछते वहां पहुंचा.
"कहाँ जाना है बाबूजी?
उसने एक बार उस बुजुर्ग को देखा और उसकी हिम्मत जवाब जवाब देने लगी. एक तो इतनी भयानक गर्मी, ऊपर से यह बुजुर्ग, कैसे खींचेगा रिक्शा. उसने अगल बगल देखा, दूर एक हटठा कट्ठा रिक्शा वाला नजर आ रहा था. बुजुर्ग रिक्शावाला भी समझ गया, उसने रिक्शे की छतरी खोलते हुए कहा "बाबूजी, बैठ जाइये, इस रिक्शे से पूरा परिवार खींचता हूँ".
वह धीरे से रिक्शे पर बैठ गया और बोला "स्टेशन ले लो". लू की तपिश अब उसे कम लग रही थी.
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
इस सटीक टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ तेज वीर सिंह जी
हार्दिक बधाई आदरणीय विनय कुमार जी।बेहतरीन लघुकथा। कुछ लोगों को यमराज के बुलावे तक मेहनत और काम करना ही पड़ता है।
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