सुबह से हो रही मूसलाधार बरसात रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी, अब तो दोपहर होने वाली थी. पिछले कई दिनों से बादल छाते तो थे लेकिन बरसने में कंजूसी कर देते थे, मानो इसरार की कामना रखते हों. मौसम पिछले कुछ दिनों की तुलना में काफी अच्छा हो गया था, उमस ख़त्म हो गयी. उसके इलाके में पानी भरने लगा था और आज वह काम पर भी नहीं जा पाया. दुकान में उसका एक दोस्त भी काम करता था, जिसने उसकी नौकरी लगवाई थी, ने मालिक को उसके न आ पाने का बता दिया था.
कल रात की उमस में जब वह खाना खाकर पड़ोस के रहमान भाई के यहाँ टी वी देखने गया तो उसके जिले से आने वाली खबरों ने उसे दहला दिया था. रात में ही उसने फोन किया, उसका गाँव अभी तक तो बाढ़ के प्रकोप से बचा था. लेकिन बाढ़ का पानी कभी भी उसके गाँव में घुस सकता था. बाबूजी ने उसे आस्वस्त कर दिया कि पूरा गाँव तैयार है और जैसे ही पानी नजदीक पंहुचेगा, वह लोग निकल जाएंगे.
वह भीगता हुआ फिर से रहमान भाई के घर पंहुचा, उसकी थोड़ी देर पहले ही गाँव पर बात हुई थी, लोग गाँव छोड़कर जा रहे थे. पानी अब धीरे धीरे रहमान भाई के घर के पास बहने लगा था और उनके बच्चे उस पानी में उछल कूद मचा रहे थे. उसको देखते ही वह चिल्लाये "अंकल, देखिये बाढ़ का पानी इधर भी आ गया. खूब मजा आ रहा है".
उसके अंदर एक झुरझुरी सी उठी, उसे तीन साल पहले का मंजर याद आ गया. बाढ़ ने उसका घर तो ढहा ही दिया था, घर की इकलौती गाय भी बाढ़ की भेंट चढ़ गयी थी. और फिर उसे अपना गाँव और परिवार छोड़कर महानगर के इस बजबजाते जगह पर रहना पड़ रहा था. पिछले दो साल की कमाई से उसका गाँव का घर किसी तरह बस रहने लायक ही बन पाया था. दरवाजे के सामने ही खड़ा वह बच्चों को खेलते देख रहा था, तभी उसके मुंह से अस्फुट स्वर में आवाज आयी "बाढ़ के पानी में मजा नहीं आता, बिलकुल नहीं आता".
मौलिक एवम अप्रकाशित
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इस टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ मुहतरम समर कबीर साहब
इस टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ शेख शहज़ाद उस्मानी साहब
जनाब विनय कुमार जी आदाब,बहुत अच्छी लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आदाब।.समसामयिक विषयांतर्गत पीड़ितों पर.बढ़िया रचना। हार्दिक बधाई आदरणीय विनय कुमार जी।
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