"यदि तुम्हें
उससे प्रेम है अनंत!
तो तुम स्वीकार
क्यूँ नहीं करते।
क्यूँ नहीं देख पाते
उसकी आंखों का सूनापन
जहाँ बरसों से नही बरसी
प्रेम की एक बूंद
तुम्हारे ह्रदय में
सबके लिए है प्रेम
किंतु उसके लिए
हो जाते हो ह्र्दयहीन
ये कैसा प्रेम है
जहाँ ना स्नेह है ना चैन
जहाँ स्व्तंत्र्ता नही
सिर्फ और सिर्फ बंधन
क्यूँ नहीं दे देते
उसे भी स्वतंत्रता
ताकि वो भी रह सके
अपने में मगन
थोड़ा सा ही सही
रह सके वो भी प्रसन्न
जैसे तुम रहते हो
अपने आप में"
-प्रदीप देवीशरण भट्ट-27.06.2019,मौलिक एव्म अप्रशित
Comment
रचना अच्छी लगी। बधाई, आदरणीय प्रदीप जी।
जनाब प्रदीप देवीशरण भट्ट जी आदाब,बहुत अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
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